SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 37 (१५) महाप्रत्याख्यान : आराधक द्वारा अन्त समय में अनशन व्रत ( समाधिमरण ) स्वीकार करके सभी प्रकार के पापों एवं भोगोपभोग का यावज्जीवन हेतु त्याग किया जाता है। इसका जिसमें विवेचन हो, उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं। महाप्रत्याख्यान का शाब्दिक-अर्थ है- महा, अर्थात् सबसे बड़ा और प्रत्याख्यान, अर्थात् त्याग, अर्थात् शरीरादि सभी का त्याग। महाप्रत्याख्यान - प्रकीर्णक में कुल १४२ गाथाएँ हैं । इसमें समाधिमरण स्वीकार करने के पश्चात् आराधक को बाह्य और आभ्यन्तर - उपधियों (परिग्रह ) के त्याग का कथन है। साथ ही यह बताया गया है कि मायारहित एवं शल्यरहित आलोचना करने वाला ही आराधक होता है । दूसरे शब्दों में, अल्पतम भावशल्य से युक्त व्यक्ति भी आराधक नहीं होता है । इसमें महाव्रतों की रक्षा के लिए विधेयात्मक एवं निषेधात्मक- दोनों उपायों का प्रतिपादन किया गया है। ध्यान और शुभ भावना ही समाधिमरण का आलम्बन है। समाधिमरण में मन की विशुद्धता का प्राधान्य है । इसमें समाधिमरण में साधक को असंयम का त्याग करके क्षमाभाव और वैराग्य भाव रखने का निर्देश किया गया है। 2 22 (१६) भक्तपरिज्ञा: भक्तपरिज्ञा में १७३ गाथाएँ हैं। इसमें भक्तपरिज्ञा नामक समाधिमरण का विवेचन है। भक्त, अर्थात् आहार और परिज्ञा, अर्थात् विवेक या प्रत्याख्यान । इस प्रकीर्णक में आजीवन आहार का त्याग करने वाले, अर्थात् समाधिमरण को स्वीकार करने वाले साधकों के सम्बन्ध में निरूपण है। यह प्रकीर्णक वीरभद्राचार्य रचित है। इस प्रकीर्णक में मरण के साधकों के सम्बन्ध में निरूपण है। वीरभद्राचार्यरचित इस प्रकीर्णक के प्रारम्भ में मंगल और अभिधेय का उल्लेख है। फिर अभ्युद्यतमरण, अर्थात् समाधिमरण के १. भक्तपरिज्ञा २. इंगिनीमरण और ३. पादपोपगमनमरण ऐसे तीन भेदों का विवेचन है। फिर भक्तपरिज्ञामरण के दो भेद - सविचारभक्तपरिज्ञामरण और अविचारभक्तपरिज्ञामरण का निरूपण है। तत्पश्चात् शिष्य द्वारा भक्तपरिज्ञामरण ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्त करने का और गुरु द्वारा आलोचना एवं व्रतग्रहणपूर्वक क्षमापना से पुरस्सर भक्तपरिज्ञाव्रत ग्रहण करने की स्वीकृति का उल्लेख है । आराधक कहता है- " मैं सभी से अपने 22 महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. १६४- १७८, गाथा १-१४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy