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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 25 वर्णन प्रस्तुत किया गया है। क्रमशः, इसमें आहार को कम करते हुए अन्त में सम्पूर्ण आहार का त्याग कैसे कराने का एवं निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपक को सम्यक् उपदेश देने का निर्देश है तथा सम्यक् प्रकार से विधि का प्रयोग नहीं करने से किस प्रकार शासन की निन्दा हो सकती है, इसका सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता (७) सातवें प्रत्याख्यान-द्वार में अनशन में छः प्रकार के कल्प्य पानी का निर्देश करते हुए इसमें पानी के विविध प्रकार गुणादि बताकर, वातपित्त, कफ, आदि के प्रकोप में कैसा पानी देना चाहिए ? इसका विवेचन किया गया है। साथ ही श्रीसंघ के समक्ष चारों प्रकार के आहार-त्याग करवाने की विधि के निर्देश के साथ आहार-त्याग के प्रत्याख्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है, इसका वर्णन है। (८) आठवें क्षमापना-द्वार के अन्तर्गत श्रीसंघ को माता-पिता तुल्य मानकर कृतज्ञभावों से क्षमायाचना करने का उल्लेख है। (६) नौवें स्वयंक्षामणा-द्वार में व्यवहार से सर्व जीवों से क्षमायाचना करने का निर्देश है। इसके पश्चात् निश्चय से सर्व जीवों के प्रति रहे हुए कषाय आदि के त्यागपूर्वक क्षमायाचना करने का निर्देश है तथा कहा गया है कि क्षमापना तभी सफल हो सकती है जब स्व-पर क्षमापना हो; यदि उभयपक्षीय क्षमापना न हो, तो एक पक्षीय (स्वयं) क्षमापना करने का विधान बताया गया है। इस प्रसंग में चन्डरुद्राचार्य का दृष्टान्त दिया गया है। चतुर्थ समाधिलाभ-द्वार के नौ प्रतिद्वारों का प्रतिपादन : १. प्रथम अनुशास्ति-द्वार में पाँच हेय एवं तेरह उपादेय - ऐसे अठारह प्रतिद्वारों का विवेचन किया गया है। इसमें प्रथम प्रतिद्वार में अठारह पापस्थानकों का स्वरूप बताया गया है, तथा इनके सेवन से दोषों की उत्पत्ति एवं इनके त्याग से गुणों की उत्पत्ति का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें अठारह पापस्थानकों की अठारह कथाएँ उपलब्ध होती हैं, वे क्रमशः इस प्रकार हैं :- १. प्राणातिपात (अहिंसा) के विषय पर सास-बहू की कथा २. मृषावाद पर वसु और नारद का प्रबन्ध ३. अदत्तादान पर श्रावकपुत्र और मण्डली की कथा ४. मैथुनविरमण-व्रत के सन्दर्भ में तीन सखियों की कथा ५. परिग्रह से दोषों की उत्पत्ति के प्रसंग में लोभानंदी जिनदास का उदाहरण ६. क्रोध के सन्दर्भ में प्रसन्नचन्द्र का प्रबन्ध ७. मान के सन्दर्भ में बाहुबली का दृष्टान्त ८. माया के विषय पर पंडरआर्या का उदाहरण ६. लोभ के सम्बन्ध में कपिल ब्राह्मण का चरित्र १०. राग के विषय पर अर्हन्नक की पत्नी और अर्हमित्र का दृष्टान्त Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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