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________________ 24/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री १. आलोचना कब और किसके समक्ष की जाए, जिसके समक्ष आलोचना की जाए, वह कैसा हो २. आलोचना करने वाला कैसा हो ३. आलोचना के दस दोष क्या हैं ४. आलोचना नहीं करने से होने वाले दोष ५. आलोचना के गुण ६. आलोचना दूसरे की साक्षी में क्यों करें ७. आलोचना की विधि में आलोचना की सात मर्यादाएँ ८. आलोचनीय दोषों का निर्देश ६. प्रायश्चित्त के प्रकार एवं स्वरूप १०. आलोचना का फल क्या है, आदि। इसमें भी जो छोटे दोषों की आलोचना नहीं करता है, तो उससे जो विराधना होती है; उस विषय पर ब्राह्मणपुत्र एवं सुरतेजराजा का उदाहरण भी दिया गया है। (२) दूसरे शय्या-द्वार में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनशन की आराधना के लिए आराधक की वसति कैसी होनी चाहिए, कहाँ एवं किसके पड़ोस में होनी चाहिए? साथ ही इसमें सज्जन एवं असज्जन के संसर्ग से उत्पन्न हुए गुण-दोषों के विषय पर दो तोतों की कथा का निरूपण है। साथ ही जहाँ क्षपक की आराधना का स्थान हो, वहाँ छोटे (बाल) मुनियों एवं राग पैदा करने वाली वस्तुओं को नहीं रखना चाहिए, इत्यादि बातों का युक्तिसंगत वर्णन उपलब्ध होता (३) तीसरे संस्तारक-द्वार में संथारे (शय्या) के प्रकारों का उल्लेख करते हुए क्षपक को सम्यक् स्थान में भी कैसा संथारा योग्य होता है ? इसके उत्सर्ग और अपवाद - दोनों प्रकारों का निरूपण किया गया है, साथ ही इसमें भावसंथारा के स्वरूप की चर्चा भी है। अग्निसंथारे के सन्दर्भ में गजसुकुमाल का चारित्र एवं जलसंथारे के विषय में अर्णिकापुत्र की कथा तथा सचित्त-संथारे के सम्बन्ध में चिलातीपुत्र के दृष्टान्त प्रस्तुत किए गए हैं। (४) चौथे निर्यामक-द्वार में निर्यापक आचार्य की योग्यता की चर्चा करते हुए इसमें क्षपक की बारह प्रकार की वैयावृत्य का वर्णन है। प्रत्येक प्रकार के वैयावृत्य में चार-चार मुनि की तथा उत्सर्ग से दो मुनि की अनिवार्यता का भी निर्देश है, साथ ही आराधना कैसे करनी एवं कैसे करवानी चाहिए, इसका भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है। (५) पाँचवें दर्शन-द्वार में यह प्रतिपादित किया गया है कि क्षपक को अनशन, अर्थात् आहार का त्याग कराने से पूर्व उसके भावों को (परिणामों को) जानने के लिए उत्तम आहार, पानी, आदि द्रव्य किस तरह से दिखाना, अथवा देना चाहिए। (६) छठवें हानि-द्वार में क्षपक को आहारादि के प्रति राग नहीं छुटा हो, तो उसको दुर्ध्यान से बचाने के लिये गीतार्थ आचार्य के द्वारा अपवादादिक कर्तव्यों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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