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________________ 18 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री का उल्लेख किया गया है तथा मरुदेवी आदि के दृष्टान्त को जानकर जीवों को प्रमाद नहीं करने की शिक्षा दी गई है। इसके आगे गृहस्थ एवं मुनि जीवन में विशेष आराधना करने हेतु परिकर्मविधि नामक प्रथम मूल द्वार के पन्द्रह प्रतिद्वारों के नामों का निर्देश है। वे क्रमशः इस प्रकार कहे गए हैं - (१) अर्हताद्वार (२) लिंगद्वार (३) शिक्षाद्वार (४) विनयद्वार (५) समाधिद्वार (६) मनोनुशास्तिद्वार (७) अनियतविहारद्वार (८) राजा का अनियत विहारद्वार (६) परिणामद्वार (१०) त्यागद्वार (११) मरणविभक्तिद्वार (१२) अधिगत (पण्डित) मरणद्वार (१३) श्रेणीद्वार (१४) भावनाद्वार (१५) संलेखनाद्वार। (१) संवेगरंगशाला के प्रथम परिकर्म-द्वार के प्रथम अर्हता प्रतिद्वार में आराधक की योग्यता का वर्णन करते हुए आराधक (धर्म) की योग्यता के सन्दर्भ में वंकचूल एवं चिलातीपुत्र के कथानक उल्लेखित हैं, साथ ही आराधक की योग्यता एवं अयोग्यता का वर्णन किया गया है। (३) दूसरे लिंग-द्वार के अन्तर्गत आराधक गृहस्थ एवं मुनि के बाह्यलिंग का निर्देश है तथा मुनि को मुंहपत्ति आदि बाह्यलिंग रखने का प्रयोजन एवं लाभ क्या है, यह प्रदर्शित किया गया है तथा दोनों के सामान्य लिंगों का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस सन्दर्भ में कुलवालक मुनि का दृष्टान्त भी उल्लेखित है। (३) तीसरे शिक्षा-द्वार में शिक्षा के तीन भेद - ग्रहण-शिक्षा, आसेवन-शिक्षा, . और तदुभय-शिक्षा के स्वरूप का विवेचन करते हुए श्रुतज्ञान से होने वाले लाभ पर सुरेन्द्रदत्त की कथा दी गई है। इसके पश्चात् ज्ञान एवं क्रिया की परस्पर सापेक्षता का उल्लेख कर क्रियारहित ज्ञान के सन्दर्भ में मथुरा के मंगु आचार्य की कथा एवं ज्ञानरहित क्रिया के सन्दर्भ में अंगारमर्दकाचार्य की कथा का निरूपण किया गया है। साथ ही आसेवन-शिक्षा के प्रकारों में गृहस्थ तथा मुनि के सामान्य आचारधर्म के साथ-साथ गृहस्थ के विशेष आचारधर्म एवं मुनि के विशेष आचारधर्म का भी विवेचन किया गया है। (४) चौथे विनय-द्वार के अन्तर्गत यह बताया गया है कि विनय धर्म का मूल है, विनय से ही ज्ञान प्राप्त होता है तथा इसमें विनय की महिमा, विनय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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