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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 17
७७ से गाथा संख्या ५७६ तक विस्तृत रूप से महासेन राजा के वैराग्यवर्द्धक चरित्र का चित्रण किया गया है। किसी मुनि के द्वारा अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त श्रवण कर महासेनराजा को वैराग्य उत्पन्न होना, उनका जिनेश्वरदेव के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, संयम की तीव्र भावना लेकर महावीर स्वामी के समवसरण में जाना और वहाँ दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय लेने का उल्लेख है।
साथ ही महासेनराजा की दीक्षा लेने से पूर्व राज्य की व्यवस्था हेतु अपने पुत्र को जो हितशिक्षाएँ दीं, उनका उल्लेख है। इस प्रसंग में विनय की महिमा एवं विष की परीक्षा के उपाय (लक्षण) भी बताए गए हैं। फिर रानी को उपदेश देकर उसमें वैराग्य जाग्रत कर, महासेनराजा एवं रानी- दोनों को प्रभु के द्वारा दीक्षा प्रदान करने एवं हितशिक्षा देने का उल्लेख है। फिर महावीर भगवान् का निर्वाण, इसके पश्चात् विशिष्ट आराधना के लिए राजर्षि द्वारा गौतमस्वामी के पास प्रार्थना करने का निर्देश है। इस तरह महासेनराजा के चरित्र का चित्रण करके गौतमस्वामी द्वारा जो आराधना का स्वरूप बताया गया, उसी का संवेगरंगशाला में विस्तार से निरूपण है।
सर्वप्रथम गौतमस्वामी द्वारा आराधना के स्वरूप का उल्लेख करते हुए उसके (१) सामान्य आराधना और ( २ ) विशेष आराधना - इस तरह दो भेद किए गए हैं; पश्चात्, सामान्य आराधना के चार प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का एवं विशेष आराधना, अर्थात् समाधिमरण की साधना के स्वरूप का उल्लेख है। इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में संक्षिप्त विशेष आराधना एवं विस्तृत विशेष आराधना - इस तरह विशेष आराधना के भी दो भेदों का निर्देश किया गया है। इसमें संक्षिप्त विशेष आराधना का स्वरूप एवं उसके सम्बन्ध में मधुराजा एवं सुकोशल मुनि का प्रबन्ध भी उल्लेखित है। यहाँ संक्षिप्त का अर्थ अल्पकालिक और विस्तृत का अर्थ दीर्घकालिक है। इस ग्रन्थ की पूर्वपीठिका के अन्त में विस्तृत, अर्थात् दीर्घकालिक अन्तिम आराधना के स्वरूप के विवेचन के पूर्व उसके चार मूल द्वारों का उल्लेख है - (१) परिकर्मविधि - द्वार ( २ ) परगणसंक्रमण - द्वार (३) ममत्व - उच्छेद-द्वार और (४) समाधिलाभ - द्वार ।
इस तरह विषय-विवेचन को चार भागों में विभक्त कर पुनः इन द्वारों को प्रतिद्वारों में विभक्त किया गया है। इन चार द्वारों के क्रमशः पन्द्रह, दस, नौ एवं नौ प्रतिद्वार या उपद्वार हैं। आगे संक्षिप्त विशेष अन्तिम आराधना, अर्थात् अल्पकालिक समाधिमरण की साधना के सम्बन्ध में मरुदेवीमाता का प्रबन्ध, आराधना की विराधना के विषय पर क्षुल्लकमुनि का प्रबन्ध एवं आराधना के फल
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