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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 19 स्वरूप, विनय की अनिवार्यता एवं विनय के प्रकारों का उल्लेख करते हुए विनय के सम्बन्ध में श्रेणिकराजा की कथा का निर्देश है। (५) पाँचवें द्वार में समाधि की चर्चा के प्रसंग में द्रव्य एवं भाव-समाधि के स्वरूप का निरूपण करते हुए इसमें भाव-समाधि की उपादेयता एवं समाधि की महिमा, उसके उपाय, उसके फल, आदि का निर्देश किया गया है। इस सम्बन्ध में नमिराजर्षि का चरित्र उल्लेखित है। (६) छठवें मनोनुशास्ति-द्वार में जीव को समाधिमरण के लिए मन को अनुशासित करने का उपदेश दिया गया है। चूंकि संसार और मुक्ति का माध्यम मन है, इसलिए इसमें विषय एवं कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिए मन को दी गई विविध प्रकार की शिक्षाओं का विस्तृत विवरण है। इस विषय पर वसुदत्त का प्रबन्ध उपलब्ध है। यह मनोनुशास्ति प्रत्येक आत्मार्थी को बार-बार चिन्तनीय (७) सातवाँ अनियतविहार-द्वार हमें यह सूचना देता है कि गृहस्थ तथा मुनि को (विहार) करना अनिवार्य है। राग-यात्रा के प्रहाण हेतु साधु को नौकल्पी-विहार एवं गृहस्थ को भी तीर्थयात्रा आदि-रूप विहार करना चाहिए। इसमें विहार-यात्रा करते समय सद्गुरु की खोज करके उनसे आत्मशुद्धि हेतु प्रायश्चित्त आदि का लाभ लेना चाहिए। इस द्वार में तीर्थयात्रा में पूजा करने से होने वाले लाभों के सन्दर्भ में दुर्गतानारी की कथा दी गई है, साथ ही स्थिरवास से किन दोषों की उत्पत्ति होने की सम्भावना हो सकती है, इस विषय में सेलकाचार्य के दृष्टान्त द्वारा प्राचीन मुनि-सामाचारी आदि का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया गया है। (८) आठवें राजा के अनियतविहार-द्वार में राजा को भी तीर्थयात्रा के लिए ग्राम, नगर, आदि में विचरण करने का उल्लेख है। इस यात्रा में मिले हुए साधुओं की भक्ति करते हुए उन्हें स्वनगर में पधारने हेतु विनती करना चाहिए तथा स्वयं के आवास में मुनि को ठहराकर आराधना करना चाहिए, इससे वसतिदान का विशिष्ट फल प्राप्त होता है, ऐसा निरूपण भी है। इस विषय पर कुरुचन्द्र का दृष्टान्त और सम्मेतशिखर तीर्थ की अद्भुत महिमा का वर्णन किया गया है। (E) नौवें परिणाम-उपद्वार के पुनः आठ प्रतिद्वार कहे गए हैं। प्रथम परिणाम प्रतिद्वार में भावश्रावक की भावना या मनोरथ का वर्णन है। . द्वितीय पुत्र-अनुशास्ति-प्रतिद्वार में पुत्र को लोक-व्यवहार आदि की शिक्षा देने का निर्देश करने के साथ इसमें योग्य शिष्य को उसका अधिकार नहीं देने के सन्दर्भ में वज्रकेशरी का उदाहरण उपलब्ध है। Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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