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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 487 यथासम्भव रोगादिकों का योग्य उपचार/प्रतिकार करता है, किन्तु पूरी कोशिश करने पर भी जब रोग असाध्य दिखता है, उसका प्रतिकार सम्भव प्रतीत नहीं होता है, तब उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने व्रतों की रक्षा में उद्यत होता हुआ, अपने संयम की रक्षा के लिए अनुद्विग्नता एवं समभावपूर्वक मृत्यु के स्वागत में तत्पर हो जाता है। 83.3 सागारधर्मामृत में समाधिमरण को आत्मघात नहीं मानते हुए कहा गया है कि स्वीकार किए हुए व्रतों के विनाश के कारण उपस्थित होने पर जो व्यक्ति विधि के अनुसार भक्तप्रत्याख्यान, आदि के द्वारा सम्यक् रीति से देहत्याग करता है, उसे आत्महत्या का दोष नहीं लगता है, किन्तु क्रोधादि के आवेशों में जो विषपान करके या शस्त्रघात द्वारा या जल में डूबकर, अथवा आग लगाकर प्राणों का घात करता है, उसे आत्मघात का दोष होता है। 834 तात्पर्य यह है कि आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति मन में विभिन्न तरह की भौतिक-अभिलाषाओं को संजोए रहता है, उसकी अभिलाषा अगर पूर्ण हो जाती है, तो उसे खुशी होती है, वह मरना नहीं चाहता है, अन्यथा उसी अतृप्ति के दुःख से दुःखी हो वह अपना प्राणत्याग करता है, अतः समाधिमरण जहाँ प्रीतिपूर्वक निःशल्य, निःकषाय-भाव से किया जाता है, वही आत्महत्या दुःखपूर्वक सशल्य और सकषायभाव से की जाती है। न्यायविद् श्री तुकोल के अनुसार समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति जन्म-मरण के चक्कर से बचने के लिए तथा मोक्ष-प्राप्ति की भावना से ही देहत्याग करता है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए समस्त संचित कर्मों का क्षय तथा आगे आनेवाले कर्मों को रोकना होता है। इसके लिए व्यक्ति दीर्घ समय तक नाना प्रकार के तपों की साधना करता है, जिससे कि उसके कर्मों का क्षय हो और मन निर्मल हो जाए, लेकिन आत्महत्या तो व्यक्ति उस समय उत्पन्न असम्मानजनक परिस्थितियों से बचने के लिए करता है। ये परिस्थितियाँ अपमान, अपराध, भावनात्मक लगाव, आदि हैं। इनसे बचने के लिए वह शीघ्र मृत्यु की कामना करता है। किसी प्रकार की साधना की अपेक्षा बाह्य साधनों की सहायता से वह तत्काल अपना प्राणाघात करता है। 835 सर्वार्थसिद्धि पृ. ३६३. सागारधर्मामृत ८/८. 35 Sallekhana is not Suicide-P-87. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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