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486 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
जैनधर्म में आत्मघात को पाप एवं आत्मा के लिए अहितकारी कहा गया है। यह ठीक है कि आत्मघात और संलेखना-दोनों में प्राणों का विमोचन होता है, पर दोनों की मनोवृत्ति में महान् अन्तर है। आत्मघात जीवन के प्रति अत्यधिक निराशा एवं तीव्र मानसिक असन्तुलन की स्थिति में किया जाता है, जबकि संलेखना या समाधिमरण परम उत्साह से समभाव धारण करके की जाती है। आत्मघात कषायों से प्रेरित होकर किया जाता है, तो संलेखना का मूलाधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अमरता के प्रति आस्था नहीं होती, वह तो दीपक के बुझ जाने की तरह शरीर के विनाश को ही जीवन की मुक्ति समझता है, जबकि संलेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक-यात्रा को सुधारना है।
___ आत्महत्या में व्यक्ति की मानसिकता बेहोशी, अर्थात् अविवेक की होती है, जबकि समाधिमरण चित्त की एक सम्यग्दशा है। इसमें व्यक्ति अपनी मौत का साक्षी होता है। आत्महत्या दुर्गति का कारण है, जबकि समाधिमरण सद्गति का। तत्वार्थवार्तिक के अनुसार राग-द्वेष क्रोधादिपूर्वक प्राणों के नाश किए जाने को अपघात या आत्महत्या कहते हैं, लेकिन समाधिमरण में न तो राग है, न द्वेष और न ही प्राणों के त्याग का अभिप्राय ही है। इसे ग्रहण करनेवाला व्यक्ति जीवन और मरण-दोनों के प्रति अनासक्त रहता है। 832 यह शरीर नाशवान् है, इसके प्रति राग रखना व्यर्थ है तथा इस देह की रक्षा करने से कोई लाभ नहीं है, अतः व्यक्ति देहासक्ति को त्यागकर समाधिमरण स्वीकार करता है, जबकि आत्महत्या करनेवाले के मन में मात्र यही भावना रहती है कि देह का त्याग शीघ्रातिशीघ्र कर दे। वह अपने तीव्र आवेगों की दशा में ही देहत्याग करता है।
सर्वार्थसिद्धि में एक उदाहरण से इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि किसी गृहस्थ के घर में बहुमूल्य वस्तु रखी हो और कदाचित् घर में आग लग जाए, तो वह येन-केन-प्रकारेण अग्नि बुझाने का प्रयास करता है, पर हर सम्भव प्रयास के बाद भी यदि आग बेकाबू होकर बढ़ती ही जाती है, तो उस विषम परिस्थिति में वह चतुर व्यक्ति अपने मकान का ममत्व छोड़कर बहुमूल्य वस्तुओं को बचाने में लग जाता है। उस गृहस्थ को मकान का विध्वंसक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसने अपनी ओर से रक्षा करने की पूरी कोशिश की, इसी तरह रोगादिकों से आक्रान्त होने पर एकदम-से सल्लेखना (समाधिमरण) नहीं ली जाती है, साधक तो शरीर को अपनी साधना का विशेष साधन समझकर
831 जैन तत्त्वविद्या, पृ. १७७. 832 तत्त्वार्थवार्त्तिक ७/२२/७.
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