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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 485 करता। समाधिमरण की प्रक्रिया में भी देहत्याग किया जाता है, लेकिन दोनों अवस्थाओं में किए जानेवाले देहत्याग में बहुत बड़ा अन्तर है। एक आवेग और आवेशयुक्त अवस्था में किया जाता है, तो दूसरा आवेग और आवेशमुक्त अवस्था समाधिमरण एवं आत्महत्या में पाए जानेवाले अन्तरों का चित्रण आधुनिक जैन-चिन्तकों ने मनोवैज्ञानिक-आधारों पर गहराई से किया है। जैनदर्शन के मूर्धन्य मनीषियों ने कहा है कि समाधिमरण आत्महत्या नहीं है, क्योंकि समाधिमरण में मृत्यु की कभी इच्छा नहीं होती है। समाधिमरण के समय जो आहारादि का त्याग किया जाता है, उस परित्याग का कारण देहपोषण की इच्छा का अभाव होता है। आहार के परित्याग से उसकी मृत्यु हो सकती है, किन्तु उसको मृत्यु की आकांक्षा नहीं होती है। जैसे- किसी व्यक्ति के शरीर में यदि कोई फोड़ा हो चुका है, डाक्टर उसकी शल्यचिकित्सा करता है; शल्यचिकित्सा से उसे वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। आकांक्षा तो स्वस्थ होने की होती है। वह शल्यचिकित्सा व्यक्ति को कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु उसके कष्ट के प्रतिकार के लिए है। वैसे ही संथारा-संलेखना की जो प्रक्रिया है, वह मृत्यु के लिए नहीं, परन्तु जन्म-मरण की प्रक्रिया के प्रतिकार के लिए है। 829 यदि एक रूग्ण व्यक्ति की चिकित्सा के दौरान मृत्यु हो जाती है, तो वह मृत्यु हत्या नहीं कहलाती है, फिर समाधिमरण में होनेवाली मृत्यु आत्महत्या कैसे हो सकती है, क्योंकि एक दैहिक जीवन की रक्षा के लिए, तो दूसरी आध्यात्मिक-जीवन की रक्षा के लिए है। समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊबकर जीवन से भागना चाहता है, उसके मूल में कायरता है, जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता है। समाधिमरण में जीवन से भागने का प्रयास नहीं, वरन् जीवन की सान्ध्यबेला में द्वार पर खड़ी मृत्यु का स्वागत है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय में मृत्यु का आमन्त्रण है, जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है।830 829 दर्शन और चिन्तन, उद्धृत पृ. ५३६. 830 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ४४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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