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488/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
समाधिमरण एवं आत्महत्या के अन्तर पर भलीभांति विचार करने के पश्चात् उनके ग्रहण करने की परिस्थितियों में भी भिन्नता दृष्टिगत होती है। समाधिमरण जीवन के अन्त समय में शरीर की अत्यधिक निर्बलता, भारभूतता, वृद्धावस्था, असाध्यरोग, आदि के कारण शरीर के जर्जरित हो जाने पर धर्मरक्षार्थ मृत्यु को अपरिहार्य मानकर की जाती है, जबकि आत्मघात जीव के किसी भी क्षण तीव्र आवेगों की दशा में किया जा सकता है। आत्मघाती के परिणामों में दीनता, भीति, उदासी पाई जाती है। उसका मन सांसारिक-वस्तुओं और भोगविलासों में लगा रहता है। समाधिमरण में परम उत्साह, निर्भीकता, वीरता का सद्भाव पाया जाता है तथा उसके मन में सांसारिक-वस्तुओं तथा अन्य भौतिक-पदार्थों के प्रति आसक्तियाँ नहीं होती हैं।
काका कालेलकर समाधिमरण और आत्महत्या के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्महत्या में व्यक्ति निराश होकर कायरतापूर्ण ढंग अपनाकर देहत्याग करता है, वहीं दूसरी ओर जब व्यक्ति यह सोचता है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं रही, तब वह आत्म-साधना के लिए समाधिमरण करता है, अर्थात् समभावपूर्वक शरीर-त्याग करता है।836
फूलचन्द्र बरैया के अनुसार समाधिमरण और आत्महत्या की विधि में भी अन्तर है। जहाँ आत्महत्या दुःख से छुटकारा पाने की भावना से की जाती है, वहीं समाधिमरण प्रीतिपूर्वक या प्रेमपूर्वक किया जाता है। व्यक्ति को जब यह भलीभांति विदित हो जाता है कि उसका मरणकाल आ चुका है, तब वह निःशल्य, निःकषाय-भाव से जीने या मरने की अभिलाषा से, अथवा मित्रानुराग, सुखानुबन्ध, आदि की आकांक्षा से रहित होकर समाधिमरण करता है।837
मनुष्य के भीतर दो प्रकार की आकांक्षाएं होती हैं, एक- जीने की अभिलाषा और दूसरी- मरने की आकांक्षा। जिन लोगों की जीने की आकांक्षा या जिजीविषा रूग्ण हो जाती है, तो वह मरणाकांक्षा में बदल जाती है, फिर वे आत्महत्या करने में तत्पर हो जाते हैं। व्यक्ति चाहता है कि यह वस्तु मुझे मिले और नहीं मिलती है, तो वह आत्महत्या के लिए तैयार हो जाता है, किन्तु यदि वह वस्तु उसे मिल जाए, तो वह आत्महत्या के लिए तैयार नहीं होता है। व्यक्ति चाहता है कि वह बड़ी प्रतिष्ठा, यश और इज्जत के साथ जीए। जब वह इज्जत नहीं रह जाती है, प्रतिष्ठा गिर जाती है, तब वह आत्महत्या करने के लिए तैयार
836 परमसखा मृत्यु, पृ. ४३. 837 जैनमित्र, वर्ष ६७, पृ. १३६.
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