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482 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री विरोध नहीं है। आज भी जापानी-बौद्धों में हरी-करी की प्रथा प्रचलित है। यद्यपि इस सम्बन्ध में जैन और बौद्ध-परम्परा में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ बौद्ध-परम्परा में शस्त्र, आदि के माध्यम से तत्काल मृत्युवरण कर लेना वैध माना जाता है, वहीं जैन-परम्परा में सामान्यतया शास्त्र, आदि के माध्यम से तात्कालिक-मृत्यु ग्रहण करने का विरोध किया गया है, क्योंकि जैन-परम्परा के अनुसार सामान्य परिस्थिति में शस्त्र, आदि के माध्यम से मृत्यु का वरण करना किसी-न-किसी रूप में मरण की आकांक्षा का सूचक है, क्योंकि यदि व्यक्ति में मरणाकांक्षा नहीं है, तो फिर मरण के लिए इतनी आतुरता भी क्यों? जैन-परम्परा के अनुसार समाधिमरण में मरणाकांक्षा को एक दोष या अतिचार माना गया है। जैन-परम्परा में शस्त्र, आदि के माध्यम से तत्काल मृत्यु को प्राप्त करना सामान्य रूप में मिथ्यादृष्टि का परिणाम है। जैन धर्म के अनुसार शस्त्र आदि के माध्यम से तत्काल देह का विसर्जन कर देना केवल उन्हीं विशेष परिस्थितियों में मान्य हो सकता है, जब ऐसा प्रतीत हो कि आध्यात्मिक और चारित्रिक-मूल्यों का संरक्षण केवल मृत्यु को प्राप्त करके ही सम्भव है। ऐसी परिस्थिति को छोड़कर अन्य परिस्थितियों में शस्त्र, विष, आदि के माध्यम से तात्कालिक-रूप में देह-विसर्जन को जैनधर्म में अनुचित माना गया है। हिन्दू-परम्परा और समाधिमरण :
__ जहाँ तक हिन्दू-परम्परा का सवाल है, उसमें भी आत्महत्या को अनुचित बताया गया है, किन्तु परिस्थितिविशेष में आत्महत्या करनेवाले को उचित भी माना गया है। पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, अहंकार और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह साठ हजार वर्ष तक नरक की यातनाएँ भोगता है। इस प्रकार हिन्दू-धर्म में भी सामान्य रूप से स्वेच्छा से मृत्युवरण या आत्महत्या को अस्वीकार किया गया है, किन्तु हिन्दू-धर्मशास्त्र में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जहाँ मृत्युवरण को समर्थन मिलता है। मनुस्मृति (११/६०, ६१), याज्ञवल्क्यस्मृति (३२५३), गौतमस्मृति (२३१), वशिष्ठधर्मसूत्र (२०२२), आपस्तम्भ-धर्मसूत्र (१/६/२५/१-६) में प्रायश्चित्त के निमित्त अग्नि, आदि में जलकर देह का विसर्जन कर देना उचित माना गया है। न केवल इनमें, अपितु महाभारत के अनुशासनपर्व (२५/६२, ६४), वनपर्व (८५/१३००), तथा मत्स्यपुराण (१४६/३४, ३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग एवं उपवास, आदि के माध्यम से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है- ऐसा भी कहा गया है, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हिन्दू-परम्परा केवल शास्त्र-अनुमोदित परिस्थितियों में ही मृत्युवरण को मान्यता प्रदान करती है, फिर भी निर्ममत्व भाव से शान्तिपूर्वक देह-विसर्जन की जो प्रक्रिया जैनधर्म में देखी जाती है, वह अन्यत्र
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