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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 481
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का उपसंहाररूप जो अन्तिम अध्ययन है, वह जहाँ एक ओर पूर्व के अध्यायों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है, वही उन अध्यायों के वैशिष्ट्य को भी इंगित करता है । इस उपसंहार में उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण के पश्चात् अन्त में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि समाधिमरण की अवधारणा जैन - परम्परा के अतिरिक्त अन्य परम्पराओं में किस रूप में उपस्थित रही और उसकी क्या मूल्यवत्ता और उपादेयता है ।
समाधिमरण का तुलनात्मक - विवेचन :
समाधिमरण की अवधारणा संवेगरंगशाला का मुख्य विवेच्य विषय है। जैनधर्म में जीवन के सन्ध्याकाल में, अथवा सामान्य अवस्था में भी जब मृत्यु अपरिहार्य तथा अत्यन्त सन्निकट प्रतीत हो, तब समाधिमरण स्वीकार करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीनकाल से पाई जाती है। जैन आचार्यों का यही सन्देश रहा है कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीर आदि बाह्य एवं कषाय, आदि आभ्यन्तर-परिग्रह से अनासक्त होकर समाधिभावपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करना चाहिए। उनका मानना है कि जो साधक मृत्यु को सन्निकट देखकर उद्विग्न होता है, मृत्यु से बचना चाहता है, उसने वस्तुतः अनासक्त जीवन जीने की कला को नहीं सीखा है। वस्तुतः, न केवल जैनसाधना-पद्धति, अपितु समस्त भारतीय-साधना-पद्धतियों में अनासक्त जीवनदृष्टि के विकास को सम्पूर्ण साधना का सारतत्त्व माना गया है, अतः मृत्यु के सन्निकट होने पर अनासक्त भाव से उसका स्वागत करते हुए शरीर का विसर्जन कर देना ही साधना का सारतत्त्व है । वस्तुतः, समाधिमरण का तात्पर्य यही है कि जीवन की सन्ध्या वेला में बाह्य और आभ्यन्तर-परिग्रह के प्रति ही नहीं, अपितु अपने शरीर के प्रति भी अनासक्त होकर मृत्यु का सहर्ष स्वागत करना चाहिए। इस प्रकार समाधिमरण अनासक्त-भाव से देह के विसर्जन की एक प्रक्रिया है। जैन - परम्परा में संवेगरंगशाला में उल्लेखित समाधिमरण स्वीकार करने की यह परम्परा प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक युग तक प्रचलित है ।
बौद्ध - परम्परा में समाधिमरण ग्रहण करने की यह प्रक्रिया केवल जैन - परम्परा में ही है, अन्यत्र नहीं है- ऐसा मानना उचित नहीं होगा, क्योंकि जैनधर्म के सहवर्ती बौद्ध-धर्म में भी यह परम्परा रही है। संयुक्तनिकाय में असाध्यरोग से पीड़ित भिक्षु वल्कलि तथा भिक्षु छण्ण के द्वारा शस्त्र, आदि के माध्यम से भी शरीर त्याग करने का समर्थन स्वयं भगवान् बुद्ध ने किया था। उन्होंने इन भिक्षुओं को निर्दोष कहकर परिनिर्वाण को प्राप्त करने वाला बताया। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध का समाधिमरण की साधना से कोई
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