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________________ 480 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री व्यवहारभाष्य, नन्दीसूत्र, हरिभद्रीयवृत्ति, सूत्रकृतांगवृत्ति, उत्तराध्ययनवृत्ति, ओघवृत्ति, आवश्यकवृत्ति, आदि आगमिक - व्याख्या - साहित्य से गृहीत की गई हैं। कौन सी कथा किस आगम से, अथवा आगमिक - व्याख्या - साहित्य के किस ग्रन्थ से उद्घृत की गई है, इसका हमने इस अध्याय में प्रत्येक कथा के सन्दर्भ में यथाप्रसंग उल्लेख किया है । आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य के अतिरिक्त इसमें उल्लेखित कुछ कथाएँ श्वेताम्बर - परम्परा में मरणसमाधि, मरणविभक्ति, प्राचीन आचार्यप्रणीत आराधनापताका और वीरभद्रकृत आराधनापताका, आदि समाधिकरण से सम्बन्धित स्वतन्त्र ग्रन्थों में भी जिनचन्द्र द्वारा संवेगरंगशाला में गृहीत की गई हैं। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत कथाएँ उपर्युक्त ग्रन्थों में संक्षिप्तरूप में या संकेत रूप में उपलब्ध होती हैं। जहाँ तक दिगम्बर - परम्परा का प्रश्न है, उसमें भगवती आराधना, आराधना - कथाकोश में भी आराधना सम्बन्धी अनेक कथाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। जिनचन्द्र द्वारा उल्लेखित इन कथाओं की उनसे भी कुछ समरूपता है। प्रस्तुत अध्याय में हमने इन विभिन्न कथाओं का उल्लेख करते हुए भगवती आराधना, आदि में कौन-कौनसी कथाएँ हैं, इसका संकेत भी यथाप्रसंग किया। इस प्रकार प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का यह पंचम अध्याय न केवल संवेगरंगशाला के कथाओं का संकलन है, अपितु वह किस कथा का क्या प्रयोजन है और संवेगरंगशाला में उस कथा को किस सन्दर्भ में उपस्थित किया गया है और उनके मूलस्रोत आगमिक - व्याख्या - साहित्य में एवं समाधिमरण से सम्बन्धित ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ हैं, इसका हमने अन्वेषण करने का प्रयत्न किया है और इस अन्वेषण में हमने यह पाया है कि संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत प्राचीन स्रोत आगम और आगमिक-व्याख्याएँ रहीं, फिर भी जिनचन्द्रसूरि ने इन आराधना से सम्बन्धित कथाओं को जितने विस्तार से प्रस्तुत किया है, उतने विस्तार से न तो वे आगमों में हैं और न ही वे आगमिक - व्याख्याओं में उपलब्ध होती हैं। दोनों आराधनापताकाओं में तथा शिवार्य की भगवती आराधना में भी इन कथाओं के मात्र संकेत ही उपलब्ध हैं। इस प्रकार जैनकथा - साहित्य और विशेष रूप से आराधना से सम्बन्धित कथा - साहित्य के मूल स्रोतों के सम्बन्ध में प्रस्तुत अध्याय अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करता है। इस शोधपूर्ण अध्ययन में हमें डॉ. मोहनलाल मेहता और ऋषभचन्द्र द्वारा प्रणीत 'प्राकृत प्रापर नेम' भाग १ -२ से विशेष सहायता मिली है, किन्तु दोनों आराधनापताकाओं में और भगवती आराधना में इन कथाओं को खोजने का प्रयत्न हमने स्वयं किया है। इस प्रकार यह पंचम अध्याय विवरणात्मक होते हुए भी, शोध की दृष्टि से उपयोगी बने, इसका हमने पूरा ध्यान रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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