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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 483
दुर्लभ है। हिन्दू-परम्परा में प्रयाग में अक्षयवट से कूदकर, अथवा काशी में करवत लेने की परम्परा प्रचलित रही है, फिर भी इतना निश्चित है कि समाधिमरण के सम्बन्ध में जैन-परम्परा में जितनी गम्भीरता से विचार किया गया है, उतनी गम्भीरता से अन्य परम्पराओं में विचार उपलब्ध नहीं होता है। समाधिमरण और आत्महत्या में अन्तर :
सामान्यतया यह देखा जाता है कि जिन लोगों को समाधिमरण के सम्बन्ध में सही जानकारी नहीं है, वे समाधिमरण और आत्महत्या को एक ही मान लेते हैं, क्योंकि दोनों में ही स्वेच्छापूर्वक देहत्याग किया जाता है; किन्तु गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता है कि समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। समाधिमरण और आत्महत्या में मूलभूत अन्तर व्यक्ति के दृष्टिकोण का है।
जिनका जीवन भौतिकता से ग्रसित है, जो जरा-सा भी भौतिक कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं, जिनका मनोबल टूट चुका है, जिन्हें आत्मा की नित्यता का विश्वास नहीं है, वे ही व्यक्ति मुख्य रूप से अपनी समस्याओं से ऊबकर मन की सांवेगिक-अवस्था से ग्रसित होने पर आत्महत्या करते हैं; परन्तु जिन्हें आत्मा की अमरता का परिज्ञान है, जिन्हें दृढ़ विश्वास है कि आत्मा और देह-दोनों पृथक् हैं, वे ही व्यक्ति समाधिमरण में मन की सांवेगिक-अवस्थाओं से पूरी तरह मुक्त होकर समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करते हैं तथा उन्हें देहत्याग के समय किंचित् मात्र भी चिन्ता नहीं होती है, जैसे- एक यात्री को अगली यात्रा के लिए होटल का कमरा छोड़ते समय मन में किंचित् भी पीड़ा नहीं होती।
व्यक्ति आत्महत्या क्यों करता है? इस प्रश्न पर थामस मसारक ने अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं326- व्यक्ति अपनी समस्याओं से घिरा रहता है, वह उन समस्याओं से मुक्त होना चाहता है, इसके लिए वह अथक प्रयास करता है, लेकिन जब वह इन समस्याओं से मुक्त नहीं हो पाता है, तो आत्महत्या या प्राणाघात करके समस्याओं से छुटकारा पा लेता है। आत्महत्या किन-किन परिस्थितियों एवं किन समस्याओं के कारण की जाती है, इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं- व्यक्ति प्राकृतिक, भौतिक एवं सामाजिक-समस्याओं से बचने के लिए आत्महत्या करता है।
826 समाधिमरण, उदधृत पृ. ७६.
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