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472 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री महत्वपूर्ण स्थान है, जिसकी चर्चा प्रथम अध्याय में कर चुके हैं। इस संवेगरंगशाला की श्वेताम्बर-परम्परा में जहाँ वीरभद्रकृत आराधनापताका से अत्यन्त सन्निकटता देखी जाती है, वही यह ग्रन्थ दिगम्बर-परम्परा की भगवतीआराधना से भी निकटता रखता है। इस सम्बन्ध में एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि समाधिमरण ग्रहण करनेवाले व्यक्ति के लिंग की चर्चा को लेकर भगवतीआराधना में गृहस्थ को भी मुनि का अचेल-लिंग प्रदान करने का उल्लेख है, वहीं संवेगरंगशाला में न केवल साधु को, अपितु गृहस्थ को भी अचेल-लिंग स्वीकार करने की बात कही गई है। यद्यपि यह एक भिन्न जात है कि जिनचन्द्रसूरि ने अचेलता को स्पष्ट करते समय अल्प एवं जीर्ण वस्त्रधारक को भी अचेल कहा है। अचेलता की यह व्याख्या श्वेताम्बर-परम्परा से प्रभावित है। इस तरह हम देखते हैं कि संवेगरंगशाला पर यापनीय-परम्परा में रचित भगवतीआराधना का व्यापक प्रभाव है। इसी प्रसंग में प्रतिलेखन के जिन गुणों का उल्लेख संवेगरंगशाला में हुआ है, वही उल्लेख भगवतीआराधना में यथावत् रूप से मिलता है। वैसे तो संवेगरंगशाला मूलतः श्वेताम्बर परम्परा में रचा गया है, फिर भी उसमें अचेलत्व का समर्थन एक महत्वपूर्ण तथ्य है, जो उस अचेल-परम्परा के प्रभाव को सूचित करता है। इसी प्रकार संवेगरंगशाला में समाधिमरण करनेवाले विभिन्न साधकों की जो कथाएँ दी गई हैं, वे भी भगवतीआराधना, आराधनापताका से बहुत कुछ समरूपता लिए हुए हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि संवेगरंगशाला के कर्ता आचार्य जिनचन्द्रसूरि न केवल श्वेताम्बर-परम्परा से परिचित थे, अपितु वे भगवतीआराधना की अचेल-परम्परा से भी प्रभावित थे। भगवतीआराधना संवेगरंगशाला के अपेक्षाकृत पूर्ववर्ती ग्रन्थ है, किन्तु उसके कथास्रोत वही हैं, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं में लोकविश्रुत रहें हैं, फिर भी आचार्य जिनचन्द्रसूरि की संवेगरंगशाला का इसी विद्या के अन्य ग्रन्थों से यह वैशिष्ट्य है कि जहाँ भगवतीआराधना, आराधनापताका, आदि मूल सिद्धान्त की चर्चा अधिक विस्तार से करते हैं और कथा-भाग का अति संक्षिप्त में मात्र नाम निर्देश करते हैं, वहाँ संवेगरंगशाला में सिद्धान्त-पक्ष की अपेक्षा भी कथापक्ष को अधिक महत्व देते हुए उसका विस्तार के साथ उल्लेख किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भगवतीआराधना और आराधनापताका- दोनों ही ग्रन्थ संवेगरंगशाला से पूर्ववर्ती हैं और इसलिए यह मानना समुचित होगा कि संवेगरंगशाला दिगम्बर-परम्परा की भगवतीआराधना और उसकी अपराजितसूरि की टीका से तथा श्वेताम्बर-परम्परा की वीरभद्रकृत आराधनापताका से अधिक प्रभावित रही है, किन्तु दूसरी ओर इस ग्रन्थ का प्रभाव इसके परवर्ती साहित्य पर भी देखा जाता है, विशेष रूप से आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र का पंचम प्रकाश, जो मृत्युकाल
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