________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 473
जानने के विविध उपायों की चर्चा करता है, संवेगरंगशाला से अत्यधिक प्रभावित है, क्योंकि उसमें निमित्त, शकुन, आदि द्वारा मृत्यु की सन्निकटता जानने के जो उपाय वर्णित हैं, वे जैन - परम्परा में संवेगरंगशाला में ही प्रथम बार उल्लेखित हैं और संवेगरंगशाला योगशास्त्र से पूर्ववर्ती है। हमारी जानकारी में संवेगरंगशाला के पूर्व जैन- परम्परा में इनका उल्लेख देखा नहीं जाता है ।
यद्यपि यह ग्रन्थ मुख्य रूप से समाधिमरण पर लिखा गया है, किन्तु समाधिमरण ग्रहण करने की पूर्वपीठिका के रूप में आराधना - विधि की चर्चा करते हुए इसमें गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का विवेचन भी मिल जाता है। वस्तुतः, इसमें सामान्य आराधना के रूप में गृहस्थधर्म और मुनिधर्म की विस्तृत विवेचना का मुख्य कारण यह है कि गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का पालन वस्तुतः समाधिमरण की साधना की पूर्वपीठिका है। जिस तरह नींव के बिना भवन तैयार नहीं होता, उसी प्रकार जीवन के पूर्वार्द्ध में गृहस्थधर्म और मुनिधर्म की साधना किए बिना समाधिमरण की साधना भी सम्भव नहीं होती है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में सर्वप्रथम हमने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में चर्चा करते हुए यह देखने का प्रयास किया है कि जैन - साहित्य में और विशेष रूप से समाधिमरण से सम्बन्धित जैन साहित्य में प्रस्तुत कृति का क्या स्थान और महत्व है। कृति के महत्व और स्थान के सम्बन्ध में हम पूर्व में कुछ संकेत कर चुके हैं, यद्यपि इस कृति के रचयिता आचार्य जिनचन्द्रसूरि ईस्वी सन् के ११वीं शताब्दी में हुए हैं। वे जैनधर्म के सुविहित परम्परा के एक प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं, जो मूलतः चैत्यवासी यति - परम्परा से भिन्न रही है। खरतरगच्छ में अपने आद्य आचार्यों के रूप में जिनचन्द्रसूरि का भी उल्लेख मिलता है, फिर भी यह दुर्भाग्य का विषय ही रहा है कि उनके व्यक्ति एवं जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्रायः अनुपलब्ध ही है। उनके सम्बन्ध में जो सबसे महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है, उससे यह ज्ञात होता है कि वे नवांगी - टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि के बड़े गुरुभ्राता थे। इससे यह भी फलित होता है कि वे जिस परम्परा में हुए हैं, वह परम्परा विद्वान् आचार्यों की परम्परा रही है। यद्यपि उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी का तो अभाव है, किन्तु प्रस्तुत कृति एवं उनकी अन्यान्य कृतियों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि वे अपने युग के एक प्रभावशाली आचार्य रहे हैं। इस शोधग्रन्थ के प्रथम अध्याय में हमने उनके जीवन-चरित्र के साथ-साथ प्रस्तुत कृति की विषयवस्तु का अति विस्तार से विवेचन किया है, साथ ही यह बताने का प्रयास भी किया है कि विषयवस्तु के विवेचन की अपेक्षा से प्रस्तुत कृति किन-किन पूर्ववर्ती ग्रन्थों का अनुसरण करती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org