SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /471 पूर्व में किसी भी जैन-विद्वान् ने इस पर कोई शोध-कार्य नहीं किया और न ही इस ग्रन्थ को लेकर शोधलेख लिखे गए। इस प्रकार समाधिमरण पर एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी अद्यतन यह ग्रन्थ अचर्चित ही रहा। उपर्युक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए डॉ. सागरमल जैन के निर्देशानुसार मैंने इसे अपने शोध का विषय बनाने का निश्चय किया। यद्यपि यह ग्रन्थ अति विस्तार के साथ मौलिक रूप में लिखा गया है, फिर भी समाधिमरण सम्बन्धी पूर्व ग्रन्थों से अप्रभावित नहीं है। इसकी प्रतिपाटन-शैली, विषयवस्तु और कथानक- तीनों में ही पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण देखा जाता है। यहाँ तक कि इन ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी आंशिक अन्तर के साथ उपलब्ध होती हैं। वीरभद्रकृत आराधनापताका से इस ग्रन्थ का विभाग-वर्गीकरण और कथानकदोनों ही पूर्णतया प्रभावित प्रतीत होते हैं, किन्तु इस आधार पर इसे अपनी पूर्ववर्ती परम्परा की मात्र अनुकृति नहीं कहा जा सकता है। इसके चिन्तन में अनेक मौलिक-तत्त्व समाए हुए हैं; विशेष रूप से इसका कथा-विभाग अति विस्तृत जैसा कि पूर्व में उल्लेखित किया गया है, जैन-परम्परा में आचारांग से लेकर परवर्ती अनेक आगमों में समाधिमरण का उल्लेख उपलब्ध होता है। विशेष रूप से आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, उपासकदशांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपातिक-दशांग आदि मूलभूत आगमों में तथा उनके पश्चात् प्रकीर्णकसाहित्य में विशेष रूप से चन्द्रवैध्यक, मरणसमाधि, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, आदि में समाधिमरण का उल्लेख उपलब्ध है। न केवल आगमों एवं प्रकीर्णकों में, किन्तु आगमों के पश्चात् भी जैन-आचार्यों ने समाधिमरण की अवधारणा पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जिनचन्द्रसूरि के आलोच्य ग्रन्थ संवेगरंगशाला का एक महत्वपूर्ण स्थान है। समाधिमरण को लेकर श्वेताम्बर-परम्परा में मरणसमाधि, मरणविभक्ति, आराधनापताका (प्राचीन आचार्यकृत) आदि स्वतन्त्र ग्रन्थ तो बनें हैं, किन्तु इसके साथ-साथ चरित्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों में भी समाधिमरण के विस्तृत उल्लेख प्रस्तुत किए गए हैं। न केवल श्वेताम्बर-परम्परा में, अपितु दिगम्बर-परम्परा में भी मूल आराधना या भगवतीआराधना (लगभग ६ठी शती) के नाम से एक स्वतन्त्र ग्रन्थ यापनीय आचार्य शिवादि के द्वारा लिखा गया और उस पर अपराजितसूरि के द्वारा लगभग दसवीं शती में बृहद्काय-टीका भी लिखी गई। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में संलेखना या समाधिमरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ बने हैं। इन ग्रन्थों में आचार्य जिनचन्द्रसूरि की कृति संवेगरंगशाला का भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy