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________________ 468 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री को भी परमात्मा की भक्ति करने की इच्छा हुई और तुरन्त उनको वन्दन करने के लिए अपनी तेज चाल से वह गुणशील उद्यान में जाने लगा। इधर श्रेणिक महाराजा भी विशाल जनसमूहसहित परमात्मा के दर्शन और वन्दनार्थ चले। उस समय राजा के घोड़े के खुर के अग्रभाग से मेंढक दब गया और उसने उसी समय अनशन स्वीकार किया तथा प्रभु का स्मरण करता हुआ वह मेंढक मरकर सौधर्म-देवलोक में दुर्दुरांक नामक देव बना । वहाँ से च्यवकर अनुक्रम से वह महाविदेह-क्षेत्र में उत्पन्न होकर मुक्ति को प्राप्त करेगा । आपातकाल में सिद्धि को प्राप्त करनेवाले नन्द मणियार ने मिथ्यात्वशल्य के कारण मेंढक की निम्न गति को प्राप्त किया, अतः इस कथानक को पढ़कर साधक को इस शल्य का त्याग कर देना चाहिए । संवेगरंगशाला में यह बताया गया है कि मिथ्यात्व एक शल्य है। मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से मनुष्य की समझ विपरीत हो जाती है। वह जीव को अजीव तथा धर्म को अधर्म मानने लगता है। ऐसी धारणाओं से घिरा हुआ व्यक्ति अपने सम्यक्त्व का नाश कर लेता है। इस सन्दर्भ में जो नन्दन मणियार की कथा दी गई है, वह हमें ज्ञाताधर्मकथा ( ६३ - ६५ ) में भी उपलब्ध होती है। जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कथानक ज्ञाताधर्मकथा से ही संकलित किया होगा- ऐसी सम्भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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