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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /469
अध्याय - ६ उपसंहार
जैन-धर्म साधनाप्रधानया आराधनाप्रधान है। उसमें आराधना के दो रूप हैं- सामान्य आराधना और विशेष आराधना। सामान्य आराधना के अन्तर्गत गृहस्थधर्म और मुनिधर्म की साधना आती है, जबकि विशेष आराधना का तात्पर्य समाधिमरण की साधना है। जैन-धर्म में समाधिमरण की आराधना की परम्परा अति प्राचीन है। उपलब्ध जैन-साहित्य में आचारांगसूत्र का प्रथमश्रुतस्कन्ध प्राचीनतम माना गया है। आचारांगसूत्र के प्रथमश्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन में समाधिमरण के प्रकारों और विधि का उल्लेख उपलब्ध होता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में भी दो स्थलों पर समाधिमरण सम्बन्धी उल्लेख उपलब्ध होते हैं। सर्वप्रथम उसके पंचम अध्ययन में बालमरण और पण्डितमरण का विस्तार से उल्लेख हुआ है। उसके पश्चात् उसके छत्तीसवें अध्ययन के अन्त में समाधिमरण की विधि का प्रतिपादन करते हुए उसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-ऐसे तीन विभाग किए गए हैं और उत्कृष्ट समाधिमरण का काल बारह वर्ष बताया गया है। इसके अतिरिक्त उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, आदि ग्रन्थों में भी विभिन्न मुनियों और साध्वियों के जीवनवृत्त का चित्रण करते हुए उनके द्वारा गृहीत समाधिमरण और उसके काल का निर्देश मिलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक-साक्ष्यों की दृष्टि से भी महावीर के पूर्व से लेकर आज तक समाधिमरण की यह परम्परा यथावत जीवित है। साहित्यिक-साक्ष्यों के अतिरिक्त यदि हम पुरातात्विक-साक्ष्यों की ओर जाएं, तो हमें ईसा पूर्व से ही अनेक पुरातात्विक और अभिलेखीय-साक्ष्य मिलते हैं, जिनमें समाधिमरण ग्रहण करनेवालों के निर्देश हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक में ऐसी अनेक अभिलेखयुक्त गुफाएं हैं, जिनमें साधकों ने समाधिमरण ग्रहण किया था। वस्तुतः, जैन-संघ में समाधिमरण ग्रहण करने की परम्परा अति प्राचीनकाल से लेकर आज तक जीवित है। आज भी प्रतिवर्ष अनेक जैन-आराधक समाधिमरण ग्रहण करते हैं।
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