________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 467
और असंयतियों का सम्पर्क होने से नन्द सेठ सम्यक्त्व से च्युत हो गया। एक बार सेठ ने ज्येष्ठ मास में पौषधशाला में पौषधसहित अट्टम तप ( तीन उपवास ) की आराधना की। सूर्य के प्रचण्ड ताप से सेठ के शरीर में शिथिलता आई तथा वह तृषा और भूख से पीड़ित बना। उस समय नन्द सेठ ने समीप में जल से भरी बावड़ी ( बाड़ी) को देखा और मन में विचार किया कि वे लोग धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, जिन्होंने यह बावड़ी बनाई है, अतः मैं भी कल राजा से आज्ञा प्राप्त कर एक सुन्दर एवं बड़ी बावड़ी तैयार कराऊँगा । ऐसा विचारकर उसने दूसरे दिन सूर्योदय होते हा पौषध को पार कर स्नान किया और विशुद्ध वस्त्रों को धारण कर तथा भेंट के लिए विविध वस्तुएँ लेकर वह राजा के पास गया। राजा को विनयपूर्वक नमस्कार करके उसने कहा- "हे देव ! आपश्री की आज्ञा से मैं नगर के समीप बाहर ही बावड़ी बनाने की इच्छा करता हूँ। ऐसा कहकर राजा की आज्ञा प्राप्तकर उसने मुसाफिरों के लिए भोजनशाला से युक्त विभिन्न प्रकार के कमल एवं स्वच्छ जल से युक्त नन्द नामक रमणीय बावड़ी तैयार की। वहाँ से स्नान करते, जलक्रीड़ा करते तथा जल को पीते हुए लोग परस्पर ऐसा बोलते कि नन्दमणियार धन्य है, जिसने यह सुन्दर बावड़ी बनवाई है। लोगों से अपनी ऐसी प्रशंसा सुनकर नन्द सेठ अत्यन्त प्रसन्न होता । कुछ समय पश्चात् पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के दोष से शत्रु के समान दुःखकारक खांसी ४. दाह ५. नेत्रशूल ६. पेट में दर्द ७. मस्तक में दर्द ८. कोद ६. खसरा १०. बवासीर ११. जलोदर १२. कान में दर्द १३. नेत्र में पीड़ा १४. अजीर्ण १५. अरुचि और १६ भगन्दर - इस तरह अति भयंकर सोलह व्याधियों ने एकसाथ उसके शरीर को आ घेरा। उस वेदना से पीड़ित सेठ ने नगर में घोषणा करवाई कि जो मेरे इन रोगों में से एक रोग का भी शमन कर देगा, मैं उसकी दरिद्रता दूर कर दूंगा। अनेक वैद्य आए, किन्तु सभी निराश होकर लौट गए । वेदना से पीड़ित नन्द सेठ अन्त में मरकर अपनी ही बावड़ी में गर्भज मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ । 'वह नन्द सेठ धन्य है, जिसने यह बावड़ी बनवाई है'- ऐसा लोगों के मुख से सुनकर मेंढकरूपधारी नन्द सेठ को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हुआ तथा वैराग्यभाव को प्राप्त होते ही, 'यह मिथ्यात्व का ही फल है'- ऐसा विचार करते हुए वह पुनः पूर्व की तरह अपने व्रतों का पालन करने लगा तथा ऐसा अभिग्रह किया कि आज से मैं हमेशा छट्ट-छट्ट पारणा ( अर्थात् दो-दो उपवास फिर पारणा ) करूंगा। पारणें में भी पुरानी सेवाल का ही सेवन करूंगा। ऐसा निश्चय करके वह मेंढक महात्मास्वरूप व्रत - प्रत्याख्यान में लीन रहने लगा ।
१. ज्वर २. श्वास ३.
एक समय वहाँ महावीर परमात्मा पधारे। तब लोगों के मुख से 'चलो! शीघ्र चलो! वीर परमात्मा पधारें हैं, उन्हें वन्दन करें' ऐसा कहते सुनकर मेंढक
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org