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466/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथानक के द्वारा यह बताया गया है कि माया कुटिलता का ही अपर नाम है। मायाचारी के भावों में मलिनता, वचनों में मधुरता और व्यवहार में विश्वासघात होता है। वह छल-कपट द्वारा कार्यसिद्धि चाहता है; अतः क्षपकमुनि को समाधिमरण की आराधना हेतु मायाशल्य का त्याग करना अनिवार्य होता है। माया ( कपट ) शल्यसहित किए गए उग्र तप से भी आत्मा को शुभ फल की प्राप्ति नहीं होती है। इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार ने पीठ - महापीठ की कथा का निर्देश किया है। प्रस्तुत कथानक के संकेत हमें आवश्यकचूर्णि ( भाग १, पृ. १३३ एवं १८० ) में भी प्राप्त होते हैं।
नन्दमणियार की कथा
मिथ्यात्व का आधार मिथ्यादर्शनशल्य को कहा गया है, इस शल्य से जीव को मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उदय होता है- बुद्धि के भेद से, कुतीर्थियों की प्रशंसा से और अभिनिवेश, अर्थात् मिथ्या आग्रह करने से यह शल्य होता है। मिथ्यात्वरूपी शल्य से युक्त व्यक्ति दानादि धर्म करते हुए भी अपनी मलिन बुद्धि से सम्यक्त्व को नष्ट करके नन्दमणियार नामक व्यापारी के समान दुर्गति में जाता है। इस प्रसंग में संवेगरंगशाला में नन्दमणियार की निम्न कथा वर्णित है:
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राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करता था। वहाँ नन्द नामक सेठ मणियों का व्यापार करता था। एक दिन वीर परमात्मा का उस नगर के उद्यान में आगमन हुआ । भगवान् के आगमन की बात सुनकर नन्द सेठ शीघ्र उद्यान में पहुँचा और भगवान् को वन्दन किया । फिर धर्मदेशना श्रवण करने के लिए उचित स्थान पर बैठा। उस समय वीर परमात्मा ने भव्य जीवों को पाँच महाव्रतरूप साधुधर्म का और बारह व्रतरूप गृहस्थधर्म का उपदेश दिया।
देशना श्रवणकर नन्द सेठ ने गृहस्थ-धर्म के करने योग्य बारह व्रतों को स्वीकार किया। फिर सेठ ने पुनः भावपूर्वक परमात्मा को वन्दन किया और स्वयं को संसार से पार उतरने के समान मानता हुआ परमात्मा की अनेक विशेषणों से युक्त स्तुति करने लगा। सेठ प्रतिदिन हर्षोल्लासपूर्वक अपने नियमों का पालन करने लगा। परमात्मा का जब अन्यत्र विहार हो गया, तब धीरे-धीरे नन्द सेठ का मन धर्म से विचलित होने लगा। वीर परमात्मा एवं संयतियों का विहार होने से
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संवेगरंगशाला, गाथा ६२५०-६३०६.
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