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________________ 462 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संकल्प भी मुनि से कहा। फिर मुनि ने कहा- “ऐसा विचार करना भी अनुचित है। यदि तुम्हें वास्तविक वैराग्य उत्पन्न हुआ हो, तो साधुधर्म को स्वीकार करो।" उनके वचनों को मानकर दोनों उनके पास दीक्षित हो गए। कालान्तर में वे मुनि गीतार्थ बनें तथा निरन्तर दुष्कर तप करते हुए विचरने लगे। एक दिन वे हस्तिनापुर नगर में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर वे नगर के उद्यान में स्थिर हुए। एक दिन मासक्षमण के पारणे हेतु सम्भूतिमुनि ने भिक्षार्थ नगर में प्रवेश किया। वहाँ नमुचिमुनि ने सम्भूतिमुनि को देखा और पूर्व परिचय का स्मरण कर 'यह मेरा दुराचरण लोगों से कह देगा'- ऐसा मानकर अत्यन्त कुविकल्पवश होकर उन्होंने अपने पुरुषों को भेजकर मुनि को लकड़ी, मुक्के, आदि के प्रहारों से मरवाकर नगर से बाहर निकलवा दिया। इससे सम्भूतिमुनि को प्रचण्ड क्रोध उत्पन्न हुआ। वे समस्त मनुष्यों को जलाने के लिए मुख से अग्नि निकालने लगे। उसके धुएं से सर्वत्र घने बादल हो गए और नगर में अन्धकार छा गया। उस समय सनत् चक्रवर्ती आदि के द्वारा मुनि को शान्त करने का प्रयत्न किया गया, परन्तु जब वे शान्त नहीं हुए तब लोगों के द्वारा समस्त घटनाओं को सुनकर चित्रमुनि वहाँ शीघ्रतापूर्वक पधारे और उन्हें मधुर वाणी से समझाने लगे"भो! भो! महायशस्वी जिनेश्वर के वचनों को जानते हुए भी तुम क्रोध क्यों कर रहे हो? अनन्त भवभ्रमण के हेतुभूत इस क्रोध से आपका संसार परिभ्रमण होगा, इसे क्या आप नहीं जानते हो?" अपकार करनेवाले नमुचि का भी क्या दोष है, क्योंकि जीवों के सुख-दुःख उनके कर्मों के कारण होते हैं। इस तरह चित्रमुनि के उत्तम वचनों को सुनकर क्रोध-कषाय से युक्त बने सम्भूतिमुनि उपशान्त हुए तथा वहाँ से वे दोनों उद्यान में गए। वहाँ वे अनशन स्वीकारकर उसके एक भाग में बैठ गए। एकदा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने अपनी पट्टरानी सहित सम्भूतिमुनि को नमस्कार किया। स्त्रीरत्न की केशराशि का स्पर्श होने से सुख का अनुभव करते हुए सम्भूतिमुनि ने मन में विचार किया कि यदि मेरे इस तप का फल हो, तो मैं भी जन्मान्तर में चक्रवर्ती बनूं। चित्तमुनि ने उन्हें समझाया कि यह संसार भोग करने जैसा नहीं है, किन्तु अनेक प्रकार से समझाने पर भी सम्भूतिमुनि ने निदान कर लिया। अन्त में मरकर वे दोनों सौधर्म-देवलोक में देदीप्यमान देव हुए। वहाँ से च्यवकर चित्तभूति का जीव पुरिमताल नगर में धनवान् सेठ के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ और सम्भूतिमुनि का जीव कपिलपुर में ब्रह्मराजा की चूलणी रानी के पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका ब्रह्मदत्त नाम रखा गया तथा कालान्तर में छः खण्ड को साधकर वह चक्रवर्ती बना। फिर चक्रवर्ती की तरह वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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