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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 463 पाँचों इन्द्रियों के विषय-सुखों को भोगने लगा। एकदा उसे जाति-स्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे पूर्वजन्म के भाई की खोज कराने के लिए उसने अपने पाँच भवों के विवेचनवाला एक आधा श्लोक बनाया - “आस्व दासौ मृगै हसौ मांतगावमरौ तथा" __ अर्थात् हम दोनों दास, मृग, हंस, चाण्डाल और देव थे। लोगों को दिखाने के लिए इसे राजदरबार में एक स्थान पर लटका दिया तथा यह घोषणा करवाई कि जो इस श्लोक का उत्तरार्द्ध पूर्ण करेगा, उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा। इधर पूर्व के चित्तभूति के जीव को भी जातिस्मरणज्ञान होने से उसने घर का त्याग कर दीक्षा स्वीकार की और विहार करके उसी नगर में पहुँचा। धर्म-ध्यान में तल्लीन हो, वह एक उद्यान में रहने लगा। उस समय वहाँ एक रहट चलानेवाले के मुख से उसने वह आधा श्लोक सुना। फिर मुनि को उसका अर्थ समझ मे आते ही उन्होंने उसका उत्तरार्द्ध श्लोक इस प्रकार कहा “एषानौषष्टिका जाति, रन्योन्याभ्यां वियुक्तया", अर्थात यह हमारा छठवाँ जन्म है, जिसमें हम एक-दूसरे से अलग हुए हैं। रहट चलानेवाले ने मुनि के मुख से आधी पंक्ति सुनी। वह राजा के पास गया और उस श्लोक का उत्तरार्द्ध राजा को सुनाकर वह श्लोक पूरा किया। उसे सुनते ही पूर्व भाई के प्रेमवश राजा मूर्छित हो गया। इधर राजपुरुष 'यह राजा का अनिष्टकारक है'- ऐसा मानकर उसे मारने लगे। तब उसने कहा- “मुझे मत मारो, यह श्लोक मुनि ने रचा है।" उसके इन शब्दों को राजा ने सुना और प्रसन्नचित्त होकर राजा भाई मुनि के पास गया और अतीव स्नेहभाव से उसके चरणों में नमस्कार कर वहाँ बैठ गया। मुनि ने उसे धर्म उपदेश दिया। उसकी उपेक्षा करके चक्रवर्ती ने मुनि से कहा- "हे भगवन्त! कृपा करके आप राज्य स्वीकार करें, विषय-सुखों को भोगें और इस दीक्षा को छोड़ दें।" मुनि ने कहा"हे राजन्! राज्य और भोग दुर्गति का मार्ग है। जिन-वचनों के रहस्य को जानकर तू इन राज्यसुखों का त्याग कर और जल्दी दीक्षा स्वीकार कर, जिससे हम दोनों साथ-साथ तप करेंगे।" राजा ने कहा- "हे भगवन्त! प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर परोक्ष के लिए क्यों दुःखी होते हो?" फिर मुनि 'निदानरूप दुश्चेष्टित के प्रभाव से राजा को समझाना अति दुष्कर है'-ऐसा जानकर उसे धर्म उपदेश कहने से रुक गए। कालान्तर में मुनि ने अपने कमों को क्षय करके शाश्वत सुख मोक्ष प्राप्त किया। चक्रवर्ती अपने अनेक पापकों के कारण अन्त समय में रौद्रध्यान करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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