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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 461 मुनि की सेवा की। स्वस्थ होने पर मुनि ने उनको धर्म का उपदेश दिया, जिससे वे चारों, मुनि के पास दीक्षित हुए तथा चारित्रधर्म का पालन करने लगे, किन्तु उनमें से दो मुनि से दुर्गन्ध करने लगे। कालान्तर में वे मरकर तप के प्रभाव से देव बने। वहाँ से वे दोनों च्यवकर दासी की कुक्षी से युगल पुत्रों के रूप में जन्में। किसी समय दोनों वृक्ष के नीचे सोए थे। वहाँ उन दोनों को एक सर्प ने डस लिया, जिससे दोनों साथ में मर गए। फिर वे दोनों गंगा नदी के किनारे युगल हँस रूप में जन्में। वहाँ भी किसी मछलीमार ने दोनों की गर्दन मरोड़कर उन्हें मार दिया। वहाँ से वे परस्पर स्नेहवश वाराणसी नगरी में भूतदिन्न नामक चाण्डाल के घर चित्र और सम्भूति नामक दो पुत्रों के रूप में जन्में। एक समय इसी नगर के शंख नामक राजा के नमचि नामक मन्त्री ने महा अपराध किया, अतः राजा ने उसे मारने के लिए भूतदिन्न चाण्डाल को आदेश दिया। चाण्डाल ने नमुचि से कहा- “यदि तुम भौंरे में रहकर मेरे पुत्रों को अध्ययन कराते हो, तो मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ।" जीने की इच्छा से नमुचि ने चाण्डाल की बात स्वीकार की और उसके पुत्रों को अभ्यास कराने लगा, परन्तु यहाँ भी उसने अपनी मर्यादा छोड़कर चाण्डाल की स्त्री के साथ व्यभिचार किया। चाण्डाल ने नमुचि को “जार" मानकर उसे मारने का विचार किया। पुत्रों द्वारा यह बात जानकर नमुचि भागकर हस्तिनापुर नगर गया और वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का मन्त्री बना। गीत-संगीत इत्यादि में कुशल बने चाण्डालपुत्रों ने वाराणसी के लोगों को आकर्षित किया, जिससे नगर के सारे पुरुष तथा स्त्रियाँ उनके पीछे दौड़ने लगे। इससे ब्राह्मण, आदि जन चाण्डालपुत्रों से ईर्ष्या करने लगे तथा राजा से कहकर उन्हें नगर से बाहर निकलवा दिया। कौमुदी-महोत्सव के दिन चाण्डाल-पुत्रों ने वेश परिवर्तन कर नगर में प्रवेश किया तथा वस्त्र से मुँह ढंककर हर्षपूर्वक गीत गाने लगे। गीत से आकर्षित हुए लोगों ने उन्हें पहचान के लिए उनके मुख से वस्त्र हटाकर देखा। ये तो वे ही चाण्डालपुत्र हैं- ऐसा कहकर सभी लोग उन्हें लकड़ी, इंट और पत्थर से मारने लगे। मार खाते-खाते वे बड़ी मुश्किल से नगर के बाहर निकले और पीड़ा से विचार करने लगे कि रूपादि गुण होते हुए भी हमारे जीवन को धिक्कार है कि हम अपनी निन्द्य जाति के कारण तिरस्कार के पात्र बनें। इस तरह दोनों ने संसार से वैराग्य प्राप्त किया और मरने का निश्चय कर पर्वत पर चढ़े। वहाँ दोनों ने कायोत्सर्ग में खड़े एक मुनि को देखा। दोनों ने पास जाकर उनको वन्दन किया। मुनि ने योग्य जानकर ध्यानपूर्ण करके उनसे पूछा कि वे कहाँ से आए हैं? उन्होंने अपनी सारी बात बताई तथा पर्वत से गिरकर मरने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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