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460/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
इसीलिए साधक को विषयरूपी कुमार्ग में जाते हुए इन्द्रियरूपी अश्वों को रोककर और वैराग्यरूपी लगाम से उसे खींचकर सन्मार्ग में जाने देना चाहिए। स्व-स्व विषय की ओर दौड़ते इन इन्द्रियरूप मृगों के समूह को सम्यग्ज्ञानरूपी जाल से बांधकर रखना चाहिए। जीव को इन्द्रियरूपी घोड़ों का बुद्धिबल से इस तरह दमन करना चाहिए, जिससे अन्तरंग शत्रु नष्ट हो जाएं और आराधनारूपी पताका फहराने लगे।
___संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथानक के माध्यम से यह बताया गया है कि जिस प्रकार कछुआ खतरे के समय अपने अंग-प्रत्यंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार साधक को भी विषयाभिमुख होती अपनी इन्द्रियों को संयमित कर लेना चाहिए। जैसे- स्पर्शेन्द्रियजन्य काम-वासना जब प्रबल बनती है, तब स्वेच्छाविहार करनेवाला मदोन्मत्त गजराज भी बन्धनों में बंध जाता है, वैसे ही स्पर्शेन्द्रिय के विषय के वशीभूत बना जीव भी सोमदेव ब्राह्मण के कोतवाल द्वारा डाले गए बन्धन के अनुसार ही बांध दिया जाता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में प्रस्तुत सोमदेव ब्राह्मण की यह कथा हमें आवश्यकवृत्ति (पृ. २६६), उत्तराध्ययनवृत्ति (६६, ३७), विशेषावश्यकभाष्य (गा. २७८७), आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होती
है
ब्रह्मदत्त की कथा शल्य के तीन भेद हैं- १.निदानशल्य २. मायाशल्य और ३. मिथ्यादर्शनशल्य। इसमें निदानशल्य रागजन्य, द्वेषजन्य और मोहजन्य-ऐसा तीन प्रकार का होता है। रागजन्य निदान तो रूप, सौभाग्य और भोग की प्रार्थनारूप है। द्वेषजन्य निदान प्रत्येक जन्म में दूसरे का अनिष्ट करनेवाला है और मोहजन्य निदान हीन कुल आदि की प्रार्थनारूप है। निदान आरम्भ में मधुर और अन्त में दुःखरूप है। इसके कारण जीव ब्रह्मदत्त के समान नरक को प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में ब्रह्मदत्त का प्रबन्ध उपलब्ध है:-823
साकेत नगर में चन्द्रावन्तसक नामक एक राजा रहता था। उसे मुनिचन्द्र नामक एक पुत्र था। एक दिन उसने सागरचन्द्र आचार्य के पास जाकर दीक्षा स्वीकार कर ली। आचार्य के साथ विहार करते मुनि मुनिचन्द्र किसी कारण से अलग हुआ, फिर अकेले चलने से मार्ग भूल गया। इससे मुनि थक गया तथा जंगल में भूख एवं प्यास से अत्यन्त पीड़ित हुआ। जंगल में चार बालकों ने उस
823 संवेगरंगशाला, गाथा ६१४३-६२१८.
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