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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 459 सोमदेव ब्राह्मण की कथा संवेगरंगशाला में सोमदेव ब्राह्मण की कथा यह बताती है, कि स्पर्शनेन्द्रिय के विषयों में आसक्त होने का क्या परिणाम होता है-८२२ शतद्वार नगर में सोमदेव नामक एक ब्राह्मणपुत्र रहता था। वह यौवन को प्राप्त करने पर रतिसुन्दरी नामक वेश्या के रूप पर आसक्त हो गया, जिस कारण उसके साथ ही रहने लगा। उसने घर में रही सम्पूर्ण सम्पत्ति का नाश कर किया। धन के अभाव में वेश्या ने भी उसे घर से निकाल दिया। इससे चिन्तातुर होकर तथा कामभोग की इच्छापूर्ति हेतु वह धन-प्राप्ति के लिए अनेक उपाय सोचने लगा। कोई उपाय नहीं मिलने पर वह गाँव के घरों में चोरी करने लगा। इस तरह वह धन प्राप्त कर पुनः वेश्या के घर कामभोगी की तरह लालसा लेकर गया। लोभी वेश्या भी उसके धन को देखकर प्रसन्न हुई। । प्रतिदिन चोरी की घटना से अत्यन्त परेशान नगर के लोगों ने राजा के सम्मुख चोर के उपद्रव की बात कही। राजा ने तुरन्त कोतवाल को चोर को पकड़ने का आदेश दिया और कहा कि यदि चोर नहीं पकड़ा गया, तो तुम्हें दण्ड दिया जाएगा। राजा के आदेश से भयभीत कोतवाल अनेक गुप्त स्थानों पर चोर को खोजने गया। वहाँ कोतवाल ने धनाढ्यपुत्र के समान उस ब्राह्मण को वेश्या के साथ भोग-विलास करते हुए देखा। इससे कोतवाल ने विचार किया कि प्रतिदिन की आजीविका के लिए अन्य घरों से भीख मांगनेवाले ब्राह्मण को इस प्रकार का श्रेष्ठ भोग कहाँ से प्राप्त हो सकता है? यही चोर होना चाहिए। ऐसा विचारकर उसने कृत्रिम क्रोध करते हुए उससे चिल्लाकर कहा- “अरे! समग्र नगर को लूटकर यहाँ छिपकर बैठा है, अब तू मुझसे बचकर कहाँ जाएगा। अरे! तू क्या सोचता है कि हम तुझे जानते नहीं है?" कोतवाल की बातें सुन, 'मुझे इसने पहचान लिया है'- ऐसा मानकर पापकर्म के दोष के भय से व्याकुल हुआ ब्राह्मण भागने लगा। जब उसे भागते देखा, तो कोतवाल को दृढ़ विश्वास हो गया कि यही चोर है और तब कोतवाल ने उसे पकड़कर राजा को सौंप दिया। फिर राजा ने वेश्या के घर की तलाशी लेकर नगरवासियों को अपने-अपने धन तथा सामग्री ले जाने के लिए कहा। राजा ने वेश्या को नगर से बाहर निकल जाने का दण्ड दिया तथा ब्राह्मणपुत्र को कुम्भीपाक में मारने की आज्ञा दी। इस प्रकार स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत ब्राह्मणपुत्र को अतीव दुःख भोगना पड़ा। 822 संवेगरंगशाला, गाथा ६०६६ से . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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