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________________ 452 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री कहा- “हे तात! आप भी इन रत्नों को बेच क्यों नहीं देते? इन रत्नों से क्या काम है? इनको बेचकर नकद रुपए ले आओ, जिससे हम भी अपने भवन पर कोटि ध्वजा चढ़ा सकें। इससे अपना धन सुशोभित होगा।" पुत्र की बात सुनकर सेठ को तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ। क्रोधित हुए सेठ ने कहा- “अरे! तुम लोग मेरे सामने फिर कभी इस प्रकार की बात मत कहना। मैं किसी भी हालत में इन्हें नहीं बेचूगाँ।" इस तरह पिता के दृढ़ वचनों को सुनकर पुत्रों ने मौन धारण कर लिया। एकदा सेठ किसी कार्यवश अन्य गाँव में गया। तब पिता की अनुपस्थिति में अन्य विचार किए बिना पुत्रों ने दूर देश से आए व्यापारियों को वे अमूल्य रत्न बेच दिए। फिर उन रत्नों के बदले प्राप्त हुई सम्पत्ति की गणना करके पुत्रों ने शंख समान उज्ज्वल कोटि ध्वजाएँ अपने भवन के ऊपर चढ़ाई। कुछ दिन बाद जब सेठ घर लौटा, तो मकान पर ध्वजा लहराते देखी। इससे विस्मित होकर उसने पुत्रों से पूछा कि यह सब क्या है? पुत्रों ने पिताजी को सर्व सत्य वृत्तान्त कहा। वृत्तान्त सुनकर सेठ क्रोध से उबल पड़ा और तीक्ष्ण कठोर शब्दों से पुत्रों का तिरस्कार करने लगा। फिर “उन रत्नों को पुनः प्राप्त करके ही मेरे घर आना"- ऐसा कहते हुए उसने पुत्रों को धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया। उन पुत्रों को दीर्घकाल तक भ्रमण करने पर भी वे रत्न नहीं मिले। रत्नों की खोज में वैधानिक पुत्र वर्षों तक इधर-उधर भटकते रहे तथा अपने घर कभी लौट नहीं पाए। साधक को ऊपर वर्णित चार वस्तुओं की दुर्लभता का विचार करते हुए हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि बोधि-प्राप्ति का जो अवसर उपलब्ध हुआ है, वह कहीं हाथों से निकल नहीं जाए। साधक को इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहिए। उपर्युक्त कथा से भी यही स्पष्ट होता है कि यदि किसी देव की सहायता से उन पुत्रों को वे रत्न मिल भी जाते, तो भी एक बार प्राप्त कर नाश हुए बोधि को पुनः प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। संवेगरंगशाला में इस कथा के माध्यम से यह बताया गया है कि संसार में सबसे बहुमूल्य वस्तुएं चार हैं, जिन्हें प्राप्त करने के पश्चात जीव को प्रमाद नहीं करना चाहिए, अन्यथा दुबारा इन अमूल्य वस्तुओं का मिलना मुश्किल ही नहीं, दुर्लभ है। संवेगरंगशाला में प्रस्तुत सन्दर्भ में जो वणिक्पुत्र की कथा दी गई है, वह कथा हमें अन्य किसी जैन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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