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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 451
किया- “भगवान्! सत्य क्या है।" प्रभु ने स्पष्ट शब्दों में कहा- “शिवराजर्षि का कथन मिथ्या है। जम्बूद्वीप आदि सभी वृत्ताकार हैं। विस्तार में एक-दूसरे से दुगुने हैं तथा असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं । " शिवराजर्षि ने भगवान् महावीर की वह बात सुनी, तो उसे अपने ज्ञान के प्रति संशय पैदा हुआ। वह भगवान् के पास पहुँचकर सही समाधान पाकर प्रबुद्ध हुआ, उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर अंगों का अध्ययन किया। कर्मों को नष्ट कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुआ।
लोकभावना का यह चिन्तन हमें यह सन्देश देता है कि अन्य द्रव्यों की भांति हमारी आत्मा भी इस लोक का द्रव्य है। हमें उसका यथार्थस्वरूप जानकर अन्य पदार्थों से ममता छोड़ आत्मभावना का अभ्यास करना चाहिए। आत्मभावना की यह साधना निर्ममत्व-भाव की प्राप्ति में सहायता करती है।
वणिक्पुत्र की कथा
जैन - शास्त्रों में कहा गया है कि इन चार वस्तुओं की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है - संसार में मनुष्यत्व की प्राप्ति, धर्मश्रवण, शुद्धश्रद्धा और संयममार्ग में पुरुषार्थ । जैन - परम्परा के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति केवल मानवपर्याय में ही सम्भव है। सद्भाग्य से मानव-जीवन प्राप्त हो भी जाए, तो सत्यधर्म का श्रवण होना अत्यन्त कठिन है। सत्यधर्म के श्रवण का अवसर मिल भी जाए, लेकिन ऐसी अनेक आत्माएँ भी हैं, जिन्हें धर्मश्रवण के पश्चात् भी उस पर श्रद्धा नहीं होती है। श्रद्धा हो जाने पर भी उसके अनुकूल आचरण करना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार सत्यधर्म की उपलब्धि और उस पर आचरण करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में वणिक्पुत्र की निम्न कथा उल्लेखित है:- 817
एक बड़े नगर में शिवदत्त नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। उसके पास ज्वर, भूत, पिशाच और शाकिनी सम्बन्धी उपद्रवों को दूर भगाने के विविध रत्न थे। उन रत्नों को वह अपने प्राणों से अधिक सम्भालकर रखता था तथा पुत्रों को भी कभी उन्हें नहीं दिखाता था । उस नगर में प्रतिवर्ष ध्वजा - महोत्सव होता था। उस दिन जिसके पास जितने करोड़ की सम्पत्ति होती थी, उतनी ही ध्वजा उसके भवन के ऊपर चढ़ाई जाती थी। एक बार उस महोत्सव पर सभी धनाढ्य चन्द्र समान उज्ज्वल कोटिध्वजा अपने - अपने भवन के ऊपर चढ़ाने लगे। सबके भवनों पर ध्वजाओं को लहराते देख शिवदत्त सेठ के पुत्रों ने पिता से
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संवेगरंगशाला, गाथा ८८२३-८८४२.
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