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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 453 पुष्पशाल की कथा विषयासक्त जीव सर्व अनिष्टों को प्राप्त होता है। मस्तक से पर्वत को तोड़ा जा सकता है और ज्वालाओं से विकराल अग्नि को भी पी सकते हैं, किन्तु इन्द्रियरूपी अश्वों को वश में करना मुश्किल है । ऐन्द्रिक - विषय-वासनाओं के कारण जीव को अनेक कष्ट उठाने होते हैं। इन कष्टों से पीड़ित होकर वह वासनाओं के अधीन ही मरण को प्राप्त करता है। जैसे- रात में कीट-पतंगे दीप की ज्योति से आकृष्ट होकर जलकर मरते हैं, उसी प्रकार किसी एक इन्द्रिय के विषय के प्रति भी आसक्त होकर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है । संवेगरंगशाला में पुष्पशाल का यह कथानक, श्रोतेन्द्रिय के विषयों में आसक्त होने का क्या परिणाम होता है, उसे बताता है - 818 बसन्तपुर नगर में पुष्पशाल नामक एक संगीतकार रहता था। वह अति कुरूप था लेकिन अपने सुमधुर स्वर के कारण नगर में प्रसिद्ध था। उसी नगर में एक सार्थवाह भी रहता था। एकदा व्यापार हेतु उसने विदेशगमन किया। अब उसकी पत्नी भद्रा घर की सार-सम्भाल करती थी। भद्रा ने दासी को कुछ सामान लाने के लिए बाजार भेजा। उस दासी ने रास्ते में भीड़ (समूह) के बीच पुष्पशाल को किन्नर की तरह गीत गाते हुए सुना । संगीत के स्वरों को सुनकर वह दासी दीवार पर चित्रित चित्र की भांति स्थिर खड़ी रह गई और इस कारण से दासी देर से घर पहुँची । दासी को विलम्ब से घर आते देखकर भद्रा को क्रोध उत्पन्न हुआ और वह कठोर वचनों से उसे डांटने-फटकारने लगी। तब दासी ने कहा“हे स्वामिनी ! आप क्रोधित मत होइए तथा मेरी बात सुनिए । यहाँ एक ऐसा संगीतकार रहता है, जिसके गीतों को सुनकर पशु-पक्षियों का भी मन वश में नहीं रहता है, तो अन्य का क्या कहना।" यह सुनकर भद्रा ने भी उसके दर्शन करने एवं उसका संगीत सुनने की इच्छा प्रकट की । एक दिन नगर में देव मन्दिर की यात्रा प्रारम्भ हुई, जिससे लोगों का नगर में आवागमन सूर्योदय से ही प्रारम्भ हो गया। भद्रा भी अपनी दासियों के साथ देव - मन्दिर आई । पुष्पशाल अत्यधिक थक जाने से वहीं मन्दिर के पास सो रहा था। दासी ने पुष्पशाल की ओर इशारा करते हुए भद्रा से कहा- “यही वह पुष्पशाल है, जो अच्छा संगीतज्ञ है। " भद्रा उसके वीभत्स रूप को देखकर कहने लगी- “हूँ! ऐसे रूपवाले के गीत को सुन लिया।” इस तरह कहते हुए उल्टा मुख करके उसने तिरस्कारपूर्वक जमीन पर थूका । नींद से उठे हुए पुष्पशाल ने जब 818 संवेगरंगशाला, गाथा ६००२-६०२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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