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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 449 अपवित्र मनुष्यों के साथ रहकर मैं भी अपवित्र होता हूँ। ऐसा संकल्प करके वह जहाज से ईखवाले द्वीप में चला गया, वहाँ वह ब्राह्मण क्षुधा लगने पर गन्ने का ही सेवन करता हुआ अपने जीवन निर्वाह के लिए वहीं रहने लगा। प्रतिदिन एक ही वस्तु का सेवन करके वह ऊब गया और दूसरे भोजन की इच्छा से वह इधर-उधर खोज करने लगा। एकदा समुद्र में किसी व्यापारी का जहाज डूबने के कारण वह व्यापारी भी उसी द्वीप में रह रहा था। वह भी ईख के रस से ही अपनी क्षुधा तृप्त करना था, इसलिए उसे गुड़ जैसी विष्ठा होती थी। जगह-जगह पड़ी विष्ठा देखकर ब्राह्मण उसे ईख का फल मानकर खाने लगा। कुछ समय बाद उस व्यापारी का उस ब्राह्मण से मिलन हुआ। दोनों में परस्पर प्रेम हो गया। एक दिन ब्राह्मण के भोजन का समय हो जाने पर उसने व्यापारी से पूछा - " तुम क्या खाते हो ?” व्यापारी ने कहा- “ईख !” ब्राह्मण कहने लगा- “अरे! तुम ईख के फलों को क्यों नहीं खाते?” व्यापारी ने कहा- “ ईख का फल तो होता ही नहीं है ।" इस पर ब्राह्मण उसे फल दिखाने के लिए अपने साथ ले गया। वहाँ उसने जमीन पर सूखी पड़ी हुई विष्ठा को ईख का फल कहकर व्यापारी को दिखाया। व्यापारी ने कहा“हा! हा! महाशय! तुम विमूढ़ बन गए हो। यह तो मेरी विष्ठा है।” यह सुनकर परम संशयवाले ब्राह्मण ने कहा - " ऐसा कैसे हो सकता है?" व्यापारी ने अन्य विष्ठा से उसकी तुलना कर उसे सत्य की प्रतीति करवाई । तब परम शोक करता हुआ वह ब्राह्मण अपने देश के लिए रवाना हो गया। इस प्रकार वस्तु के स्वरूप से अज्ञानी जीव शोचरूपी ग्रह से ग्रसित होकर इहलोक और परलोक में अनर्थों का भागी बनता है और पुनः अशुचि के प्रति दुर्गंच्छा के पाप से अनेक बार निम्न योनियों में जन्म आदि प्राप्त करता है, इसीलिए देह के अशुचित्व को जानकर आत्मा को परम पवित्र बनाने के लिए धर्म में विशेष उद्यम करना चाहिए। अशुचि - भावना के सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में जो ब्राह्मण की कथा उपलब्ध होती है, वह कथा हमें अन्य जैन - ग्रन्थों में नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि आचार्यश्री ने यह कथा किसी जैनेतर स्रोत से ग्रहण की हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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