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448 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
दुःख, पीड़ा, सन्ताप, आदि दिया जाता था। शिवकुमार देव ने देवलोक से अपने ज्ञान का उपयोग किया तथा पूर्व स्नेह के वशीभूत उसने अपने भाई को दुःखी देखकर उसके पास जाकर कहा- “हे भद्र! क्या तू मुझे जानता है?" इस प्रकार पूछकर उसे शिवकुमार ने अपना पूर्व परिचय दिया और उसे अन्यत्वभावना की सशिक्षा देते हुए कहा- "काया को जितना कष्ट दिया जाए, उतना ही वह फलदायक सिद्ध होता है।" तब सुलस ने कहा- "तो मेरे उस मृत शरीर को तुम पीड़ा दे दो, जिससे मैं सुखी हो जाऊँगा।" तब देव ने कहा- “जीवरहित काया का कोई अर्थ नहीं है, अब उसे पीड़ा देने से कोई लाभ नहीं, अब तो मात्र किए हुए कर्मों के फल को समत्वभाव से सहन करो।" इस प्रकार नारकीय-जीवन के दुःखों के अशक्य प्रतिकार को उसे समझाकर देव स्वर्ग में चला गया और सुलस लम्बे समय तक नरक में रहा।
इसीलिए बुद्धिमान् मनुष्य को धन, शरीर और स्वजनों को भी पराया या अन्य समझकर धर्म में प्रयत्नशील रहना चाहिए।
सुलस और शिवकुमार की यह कथा हमें संवेगरंगशाला में जिस रूप में उपलब्ध होती है, उस रूप में किसी अन्य जैन-ग्रन्थ में उल्लेखित हो- यह ज्ञात नहीं होता है; किन्तु जैन-ग्रन्थों में सुलस नाम से अनेक कथानकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
ब्राह्मण की कथा अशुचि का अर्थ अपवित्रता है। अशुचि-भावना में साधक मुख्य रूप से यह विचार करता है कि जिस देह, रूप, यौवन, आदि का हम अभिमान करते हैं, जिस देह के प्रति हम ममत्व रखते हैं, वह अशुचि का भण्डार है। यह शरीर कृमियों से भरा हुआ, भीतर से दुर्गन्धित, वीभत्स रूपवाला, मलमूत्र से पूरित तथा रुधिर, मांस, मज्जा, आदि अनेक अशुचि वस्तुओं से बना है। शरीर की अशुचिता पर संवेगरंगशाला में एक ब्राह्मण की निम्न कथा वर्णित है:-815
एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था। वह वेद-पुराण में कुशल बुद्धिवाला था तथा शुचिवाद मानता था। वह एक ताम्रपात्र में दर्भ और तन्दुलमिश्रित पानी लेकर पूरे नगर में छिड़कता तथा सबसे कहता था कि यह भूमि अपवित्र है। एक दिन उसने मन में निश्चय किया कि मुझे वसतिवाले प्रदेश में नहीं रहना है।
815 संवेगरंगशाला, गाथा ६७२२-८०२१.
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