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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 443 हुआ था। मुझे एक बार असह्य अक्षि-रोग (नेत्रपीड़ा) हुआ। सभी परिवारजनों ने रोग दूर करने के खूब प्रयत्न किए, सभी ने मेरी वेदना पर आँसू बहाए, पर वे मेरी वेदना को बाँट नहीं सके। यह थी मेरी अनाथता। तब मैंने दृढ़ संकल्प किया कि यदि मैं वेदना से मुक्त हो जाऊँ, तो मैं मुनि बन जाऊँगा। इस संकल्प के साथ मैं सो गया। ज्यों-ज्यों रात्रि बीतती गई, मेरा रोग शान्त होता गया। सुबह होने पर मैंने अपने आपको पूर्ण रूप से स्वस्थ पाया। मैं विधिपूर्वक श्रमण बनकर सभी त्रस एवं स्थावर प्राणियों का नाथ बन गया। मैंने आत्मा पर शासन किया और अब मैं विधिपूर्वक श्रमणधर्म का परिपालन करता हूँ। यह मेरी सनाथता है।" सम्राट श्रेणिक ने पहली बार ही सनाथ-अनाथ का विवेचन सुना। उसके ज्ञानचक्षु खुल गए। सम्राट श्रेणिक ने कहा- “वस्तुतः आप ही सनाथ हैं और सभी के बान्धव हैं।" इस प्रकार मुनि अनाथी ने सम्राट श्रेणिक को संसार की अशरणता का मर्म बता दिया। विकराल मृत्यु से बचाने में कोई समर्थ नहीं है-इस प्रकार की भावना ही अशरणभावना है। जिस प्रकार मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। माता-पिता, भाई-बहन, अथवा कोई भी परिजन उसे मृत्यु के पंजे से मुक्त नहीं करा सकते हैं। संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथानक हमें उत्तराध्ययनसूत्र के २० वें अध्याय में उपलब्ध होता है। साथ ही प्रस्तुत कथानक उत्तराध्ययननियुक्ति, उत्तराध्ययनभाष्य एवं उत्तराध्ययनचूर्णि में भी प्राप्त होता है। इससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कथानक उत्तराध्ययनसूत्र से ही ग्रहण किया होगा। तापस सेठ की कथा - संसार की दुःखमयता का विचार करना संसारभावना है। जन्म दुःखमय है, रोग और मृत्यु भी दुःखमय है। जिसमें प्राणी को क्लेश प्राप्त हो रहा है, वह सम्पूर्ण संसार दुःखमय है। दुःख से परिपूर्ण इस संसार में जीव अनन्तकाल से भ्रमण करता आ रहा है तथा अन्य समस्त जीवों के साथ माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, आदि सापेक्ष सम्बन्धों से पीड़ित होता रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस संसार में ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है, जो एक जीव ने दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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