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________________ 444 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री अन्य जीवों के साथ नहीं भोगा है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में तापस सेठ की कथा कही गई है, जो निम्न है:-812 कौशाम्बी नगरी में तापस नाम का एक सेठ रहता था। वह धर्म से विमुखबुद्धि वाला था। उसे अपने परिजनों से अति मोह था, इससे वह मरकर मोहवश अपने ही घर में सूअर के रूप में पैदा हुआ। वहाँ अपने स्वजनों को देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पिता की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् पुत्र ने अपने पिता का वार्षिक श्राद्ध किया। उस दिन भोजन, आदि का आयोजन रखा गया। पुत्र ने भोजन के लिए ब्राह्मण, सन्यासी, स्वजन, आदि को निमन्त्रित किया तथा सभी के लिए माँस का भोजन (सामिष भोजन) बनाया, लेकिन एक बिल्ली ने उस भोजन को आमन्त्रितों को परोसने के पूर्व ही जूठा कर दिया। तब पुनः भोजन बनाने के लिए दूसरा कोई जीव नहीं मिलने पर उस पुत्र ने उसी सूअर को मारकर उसका भोजन बनवाया। इस तरह वहाँ से मरकर वह सेठ पुनः उसी घर में सर्प बना। वहाँ पर अपने ही माँस का भोजन बनता हुआ देखकर उस सर्प को अपने पूर्वभव का स्मरण हुआ। इधर सर्प को देखकर लोगों में भय से कोलाहल मच गया। इकट्ठा हुए लोगों ने मिलकर उस सर्प को मार दिया। वह सर्प मरकर पुनः अपने ही पुत्र के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। अब उसे पुनः पूर्वभव का स्मरण हुआ। इस पर वह मन में विचार करने लगा- मैं अपने ही पुत्र को पिता और पुत्रवधू को माता कैसे कहूँ? इस असमंजस में पड़ा वह संकल्पपूर्वक मौन रहने लगा। कालान्तर में वह तरुणावस्था को प्राप्त हुआ। एक दिन कौशाम्बी नगरी में धर्मस्थ नामक आचार्य का पदार्पण हुआ। उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि इस नगरी में किसी जीव के प्रतिबोधित होने की सम्भावना है। अपने ज्ञान से आचार्य ने उस मौनधारी पुत्र को योग्य जाना। आचार्य ने उसके पूर्वभव से सम्बन्धित एक श्लोक की रचना कर उसे सुनाया और उसे धर्म स्वीकार करने को कहा। इस तरह अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिससे उसने आचार्य के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। जिन-धर्म के प्राप्त होने पर यदि मानव उसे स्वीकार नहीं करता है, तो वह संसार में दुःसह दुःखों को प्राप्त करता है, अतः संसार के पदार्थों को दुःखों के कारणभूत जानकर आराधक को विशेष आराधना करने में उद्यत रहना चाहिए। 812 संवेगरंगशाला, गाथा २६३४-८६५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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