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________________ 442 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री इस प्रकार संसार की समस्त वस्तुओं की अनित्यता को जानकर तथा इससे प्राणियों को अल्पमात्र भी शरण या त्राण नहीं मिलता है- ऐसा जानकर उनका त्याग कर देना चाहिए। शरीर, यौवन, आदि की अनित्यता का चिन्तन करना ही अनित्य-भावना या अनुप्रेक्षा कहलाता है। संवेगरंगशाला में अनित्यता के चिन्तन के सम्बन्ध में नग्गति राजा का प्रबन्ध उपलब्ध होता है। प्रस्तुत कथा के संकेत हमें आवश्यकचूर्णि (भाग-२, पृ. २०८) एवं उत्तराध्ययनसूत्र (१८/४६) आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। अनाथी मुनि की कथा जन्म, जरा, मरण, उद्वेग, शोक, सन्ताप और व्याधियों से ग्रस्त इस भयंकर संसार-अटवी में प्राणियों का कोई शरणभूत नहीं है। सर्व जीवों का रक्षण करने में समर्थ करुणावत्सल वीतराग परमात्मा की जिनाज्ञा है। धर्म की ही शरण सत्य एवं शाश्वत है, अन्य सभी शरण अशरण हैं। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में अनाथी मुनि की निम्न कथा वर्णित है :-8।। राजगृही नगरी के स्वामी राजा श्रेणिक एक बार मण्डित कुक्षी उद्यान में पहुँचे। वहाँ उद्यान की शोभा को देखते हुए उनकी आँखें एक ध्यानस्थ मुनि पर जा टिकी। उस मुनि के अद्भुत रूप-लावण्य को देखकर वे विस्मित हुए। उन्होंने मुनि से पूछा- “आप तरुण हैं, भोग भोगने योग्य हैं, फिर आपने इस आयु में संन्यास क्यों ग्रहण किया?" उत्तर में मुनि ने कहा- "मैं अनाथ था, मेरा कोई भी नाथ नहीं था, इसलिए मैं मुनि बना।” राजा ने मुस्कुराते हुए कहा"शरीर-सम्पदा से आप ऐश्वर्यशाली प्रतीत होते हैं, फिर भी अनाथ कैसे? मैं आपका नाथ बनता हूँ। आप मेरे साथ चलें तथा सुखपूर्वक भोग भोगें।" मुनि ने कहा- "तुम स्वयं अनाथ हो। मेरे नाथ कैसे बन सकोगे?" राजा को यह वाक्य तीक्ष्ण शस्त्र की तरह चुभ गया। उसने कहा- “आप झूठ बोलते हैं। मेरे पास विराट सम्पदा है, मेरे आश्रय में हजारों व्यक्ति हैं। ऐसी अवस्था में मैं अनाथ कैसे?" मुनि ने समाधान करते हुए कहा- “तुम अनाथ का अर्थ नहीं जानते। मैं तुम्हें इसका रहस्य बताता हूँ। मैं गृहस्थाश्रम में कौशाम्बी नगरी में रहता था। मेरे पिता के पास विराट वैभव था। मेरा विवाह उच्च कुल में 811 संवेगरंगशाला, गाथा ५५६६-८६२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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