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एक श्रावकपुत्र की कथा
जो मनुष्य जिनेश्वर भगवान् की पूजा करके एक लाख बार नमस्कार - मन्त्र का अखण्ड जाप करता है, वह तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करता है | नमस्कार - मन्त्र के प्रभाव से अवश्य ही जन्मान्तर में भी श्रेष्ठ जाति, कुल, रूप, आरोग्य और अतुल सम्पत्ति, इत्यादि की प्राप्ति होती है। यह नमस्कार - मन्त्र आराधना में विजयध्वज को ग्रहण करने के लिए हाथ है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है तथा दुर्गति के द्वार को बन्द करने के लिए अर्गला है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में एक श्रावकपुत्र का दृष्टान्त दृष्टव्य है
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एक नगर में एक श्रावक रहता था । उसका पुत्र यौवन से उन्मत्त, वेश्या और जुएं का व्यसनी था । पुत्र को अकार्य करते देख पिता ने उसको बहुत समझाया और धर्म करने के लिए कहा, परन्तु फिर भी धर्म में उसकी रुचि नहीं जगी और वह निरंकुश हाथी की तरह स्वच्छन्द भोग-विलास करने लगा। एक दिन मरते समय पिता ने उसे बुलाकर कहा- " हे पुत्र ! यद्यपि तू प्रमादी है, फिर भी मनोवांछित फल को देनेवाले इस नमस्कार - मन्त्र को तू याद कर ले और हमेशा दुःख अथवा संकट में इस मन्त्र का स्मरण करना। इसके प्रभाव से भूत, वेताल, आदि के उपद्रव नहीं होंगे।” पिता द्वारा अति आग्रह करने पर उनका मान रखने के लिए पुत्र ने उनके वचनों को स्वीकार किया। कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद घर में धन एवं सम्पत्ति का भी नाश हो गया, जिससे वह घर को छोड़कर एक त्रिदण्डी से मित्रता करके उसके साथ रहने
लगा।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 433
एक दिन त्रिदण्डी ने विश्वासपूर्वक श्रावकपुत्र से कहा- “हे भद्र! यदि तू काली चतुर्दशी की रात्रि में अखण्ड श्रेष्ठ अंगवाले मृतक के शरीर को लेकर आएगा, तो उस मृत शरीर को मैं साधना द्वारा मन्त्रित कर तेरी दरिद्रता दूर कर दूंगा । उसकी बात को स्वीकार कर श्रावकपुत्र ने काली चतुर्दशी की रात्रि में निर्जन श्मशान से मृतक का शरीर लाकर उसे दिया । त्रिदण्डी ने उस मुर्दे के हाथ में तलवार देकर मण्डल - आकार बनाकर उसके ऊपर मृत शरीर को बैठाया और उसी के सामने श्रावकपुत्र को भी बैठाया। तत्पश्चात् त्रिदण्डी ने जोर से विद्या का जाप प्रारम्भ किया। उस शक्ति से वह मुर्दा उठने लगा । श्रावकपुत्र मुर्दे को उठता देख डरने लगा और तुरन्त ही पिता द्वारा दिए गए नमस्कार - महामन्त्र का स्मरण करने लगा । नमस्कार - मन्त्र के प्रभाव से मुर्दा जमीन पर गिर गया। पुनः, त्रिदण्डी
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संवेगरंगशाला, गाथा ७७४६-७७६६.
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