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434 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री द्वारा विद्या का जाप करने से मुर्दा उठा और नमस्कार-महामन्त्र के प्रभाव से वह फिर गिर गया। त्रिदण्डी ने कहा- "हे श्रावक पुत्र! क्या तू मन्त्रादि कुछ विद्या जानता है?" उसने कहा- “मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ।" पुनः त्रिदण्डी अपनी विद्या का जाप करने लगा, किन्तु नमस्कार-मन्त्र के प्रभाव से वह मुर्दा श्रावकपुत्र को मारने में असमर्थ बना, लेकिन उसने उस त्रिदण्डी को मारकर उसके टुकड़े कर दिए। उस तलवार के प्रहार से त्रिदण्डी का मृत शरीर स्वर्णमय बन गया। श्रावकपुत्र उसे स्वर्णमय देखकर प्रसन्न हुआ और इसे पंचपरमेष्ठि-मन्त्र का प्रभाव जाना। उस स्वर्ण को घर ले जाकर उसने अपना भण्डार भरा और इस तरह वह धनाढ्य बन गया।
यह कथा पढ़कर हृदय में इस प्रकार के भावों का चिन्तन करें कि यह नमस्कार-मन्त्र विपुल वैभव का प्रदाता है और वह वैभव किसी भाग्यवान् व्यक्ति को ही प्राप्त हो सकता है, मैं धन्य हूँ कि अनादि-अनन्त संसार-समुद्र में अचिन्त्य चिन्तामणि सदृश यह पंचपरमेष्ठि-मन्त्र मैंने प्राप्त किया है।
__ संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। परवर्तीकाल में प्रस्तुत कथा स्वर्णपुरुष की कथा के नाम से उपलब्ध होती है, जो हमें कल्पसूत्रवृत्ति में मिलती है।
यव साधु की कथा ज्ञान प्रकृष्ट दीपक है और तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाला कांकिणी रत्न है। पाप से निवृत्ति, धर्म में प्रवृत्ति और विनय की प्राप्ति-ये तीनों ज्ञान के मुख्य फल हैं। नरक का जीव जिन कर्मों को करोड़ों वर्ष में क्षय करता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी पुरुष एक श्वासोश्वास में ही क्षय कर देता है; इसलिए बुद्धिमान् जीवों को प्रयत्नपूर्वक ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में यव मुनि का निम्न प्रबन्ध दृष्टव्य है-807
उज्जैन नगर में यव नामक राजा राज्य करता था। उसको गर्दभ नामक एक पुत्र और अडोल्लिका नामक एक सुन्दर पुत्री थी। उसका दीर्घपृष्ठ नामक एक मन्त्री था। एकदा गर्दभ युवराज अपनी ही बहन को देखकर उस पर आसक्त हो गया। किसी भी प्रकार से उसे प्राप्त नहीं कर पाने से युवराज प्रतिदिन दुर्बल होने
संवेगरंगशाला, गाथा ७८५२-७८८७.
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