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432 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
संन्यासी के कहे अनुसार अंगदत्त उस भौंरे तक पहुँचा तथा वहाँ उसने एक सुन्दर युवती को देखा। उस युवती द्वारा पूछने पर अंगदत्त ने उसे तलवार निकालकर दिखाई। इससे अपने भाई का मरण जानकर युवती ने अपना शोक छिपाकर उसके स्वागत हेतु उसे यन्त्रयुक्त पलंग पर आराम करने के लिए कहा । अंगदत्त उस पलंग पर बैठा, लेकिन जाग्रत रहा। जैसे ही वह युवती यन्त्र दबाने के लिए गई कि तुरन्त ही अंगदत्त उस पलंग को छोड़कर छिप गया। कुछ ही क्षण में जब पलंग टूट गया, तब प्रसन्न हृदयवाली उस युवती ने कहा- “हा! हा! मेरे भाई का विनाश करनेवाले पापी को मैंने मार दिया. अब मुझे मारनेवाला कौन है ?” ऐसा सुन अंगदत्त ने उसकी चोटी को पकड़ा और उसे राजा के पास ले आया । वहाँ उसने राजा को सर्व वृत्तान्त कहा। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उसे जीवन भर की आजीविका देने की घोषणा की। वह लोगों में पूज्य बना और सर्वत्र उसकी प्रशंसा हुई । कालान्तर में वह अपने नगर में गया। वहाँ राजा ने उसका सत्कार किया और उसको उसके पिता के स्थान पर नियुक्त किया।
निद्रा ध्यान एवं साधना में विघ्नकारी है, इसलिए निद्रा पर विजय प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि भगवान् ने जयन्ती श्राविका को कहा था कि धर्मी व्यक्ति को जाग्रत और अधर्मी व्यक्ति को निद्रा में रहना श्रेयस्कर है । सोए हुए का ज्ञान भी सो जाता है, जबकि जाग्रत व्यक्ति का ज्ञान स्थिर और दृढ़ रहता है। जो अजगर के समान निद्रामग्न होता है, उसका अमृततुल्य श्रुतज्ञान नष्ट हो जाता है, अतः निद्रारूपी शत्रु को जीतकर मानव को सदैव जाग्रत रहना चाहिए |
निद्राधीन पुरुष मूर्च्छित अवस्था में रहता है। निद्रा में करवट बदलते समय वह सूक्ष्म जीवों की हिंसा कर देता है। निद्रा उद्यम में विघ्नकारी एवं महान् भय के प्रादुर्भाव का कारण है। प्रस्तुत विषय पर संवेगरंगशाला में अंगदत्त की जिस कथा का प्रतिपादन किया गया है, वह कथानक हमें व्यवहारसूत्रवृत्ति ( भाग ४, पृ. ३६) ग्रन्थ में उपलब्ध होता है।
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