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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 431 प्रसन्न नहीं हुआ। फिर भी राजा ने उससे पूछा- “बोल तुझे कौन-सी आजीविका चाहिए?" अंगदत्त ने कहा- “यदि आपको मेरी कला से प्रसन्नता नहीं है, तो दान से मुझे क्या प्रयोजन है?" उसी समय नगरजनों ने राजा से निवेदन किया- "हे राजन्! इस नगर में कोई चोर नगरवासियों को लूट रहा है, अतः आप इसका निवारण करें।" राजा ने कोतवाल को सात दिन में चोर को पकड़कर लाने का आदेश दिया। जब कोतवाल आँखें बन्द कर चुपचाप खड़ा रहा, तब अंगदत्त ने कहा- “हे देव! कृपा करके यह आदेश मुझे दीजिए।" राजा से आदेश प्राप्त कर वह राजदरबार से निकला और उन चोरों की खोज करने लगा। चोर अधिकांशतः शून्यगृह, सभास्थान, आश्रम और देवकुलिका, आदि स्थानों में ही रहते हैं- ऐसा विचार कर वह ऐसे स्थानों पर उनकी खोज कर फिर नगरी के बाहर उद्यान में पहुँचा। अंगदत्त एक आम्रवृक्ष के नीचे बैठकर चोर को पकड़ने का उपाय सोच रहा था। उसी समय एक परिव्राजक संन्यासी वहाँ आया और उसके समीप आकर बैठ गया। उस संन्यासी ने अंगदत्त से कहा- “हे वत्स! तू कहाँ से आया है और क्यों भ्रमण कर रहा है?" उसने कहा- "हे भगवन्त! मैं उज्जैन से आया हूँ और निर्धन होने से भटक रहा हूँ।" संन्यासी ने कहा- “हे पुत्र! यदि ऐसा ही है, तो मैं तुझे धन दूंगा।" संध्या पूर्ण होते ही जब अन्धकार हो गया, तब त्रिदण्ड में से तीक्ष्णधारवाली तलवार निकालकर वह सन्यासी अंगदत्त के साथ नगरी में गया। वहाँ उसने एक धनिक सेठ के घर में डाका डालकर बहुत-सा धन लूटा। तत्पश्चात् अंगदत्त को वहाँ खड़ाकर वह स्वयं देवभवन में सोए हुए अपने मनुष्यों को उठाकर लाया तथा धन के पोटलों को उनके द्वारा उठवाकर उद्यान में ले गया। अर्द्धरात्रि होने से संन्यासी ने सबको कुछ देर सोने के लिए कहा। उसकी बात स्वीकार कर सब गाढ़ निद्रा में सो गए, केवल अंगदत्त कपटनिद्रा करके एक क्षण सोया और तुरन्त वहाँ से उठकर वृक्षों के समूह में छिप गया। उस परिव्राजक ने अपने मनुष्यों को निद्राधीन जानकर मार दिया और अंगदत्त को वहाँ नहीं देखकर उसे वृक्षसमूह में खोजने लगा। संन्यासी को सामने आते देख अंगदत्त ने उस पर तलवार से तेज प्रहार किया। तीव्र वेदना से पीड़ित उस परिव्राजकरूपी चोर ने कहा- "हे पुत्र! अब मेरा जीवन समाप्त हो गया है, मेरी तलवार को स्वीकार कर और श्मशान के पृष्ठ भाग में जा। वहाँ तू चण्डिका के मन्दिर से आवाज देना, जिसे सुनकर भौंरे में से मेरी बहन आएगी। उसे यह तलवार दिखाना, जिससे वह तेरी पत्नी बनेगी और तुझे भौंरे में रखा धन का स्थान बतलाएगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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