SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 430 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संवेगरंगशाला के इस कथानक का फलित यह है कि विषयासक्त मुनि संयममार्ग से भ्रष्ट हो जाता है, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा पराक्रम सम्भव नहीं होता है। वह गुरु के हितकर उपदेशों को भी भूल जाता है। अतः तीन लोक के भूषणरूप संयम जीवन ग्रहण करने के पश्चात् मुनि को विषयासक्ति से दूर रहना चाहिए। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में जो कण्डरीक की कथा निरूपित की गई है, वह हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. ५४६), आचारांगचूर्णि (पृ. ५८-२११), आचारांगवृत्ति (पृ. ११३, २४१), ज्ञाताधर्मकथा (१४१-७), आवश्यकवृत्ति (पृ. २८८), उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. ३२६), मरणसमाधि (गा. ६३७), स्थानांग (२४०), महानिशीथ (१७६), स्थानांगवृत्ति (पृ. ३६०), सूत्रकृ तांगवृत्ति (पृ. १४७), आदि अनेक ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है। अंगदत्त की कथा मनुष्य निद्रावस्था में जीवित होते हुए भी मृतक के सदृश हो जाता है। निद्रा से वह मूर्छित और सत्वरहित बन जाता है। निद्रा ज्ञान का अभाव है, गुण समूह का पर्दा है और विवकेरूपी चन्द्र को ढकने के लिए घने बादल के तुल्य है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में अंगदत्त की निम्न कथा वर्णित है :-805 उज्जयिनी नगरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसका अमोघरथ नामक एक सारथी था। उस सारथी की यशोमति नामक पत्नी और अंगदत्त नामक एक पुत्र था। अंगदत्त जब बालक ही था, तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई। इस पर राजा ने उसके पिता के स्थान पर दूसरे सारथी को रखा। नए सारथी को भोग-विलास करते देख यशोमति अपने पुत्र की चिन्ता में रुदन करती रहती। एक दिन माँ को रोते हुए देखकर पुत्र ने पूछा- “हे माँ! तू हमेशा क्यों रोती रहती है?" पुत्र द्वारा अति आग्रह करने पर माँ ने उसे रोने का कारण बताया। उसके बाद माँ ने पुत्र की कला सीखने की जिज्ञासा को जानकर उसे कला सीखने हेतु कौशाम्बी नगरी भेजा, जहाँ उसके पिता का मित्र दृढ़प्रहारी रहता था। उसने अंगदत्त को अपने पुत्र के समान रखा और उसे शस्त्रादि कलाओं में कुशल बनाया। एक दिन दृढ़प्रहारी उसका कला-कौशल दिखाने के लिए उसे कौशाम्बी के राजा के पास ले गया। अंगदत्त राजसभा में अपनी कला को प्रदर्शित करने लगा। उसकी कला को देखकर नगरजन उसकी प्रशंसा करने लगे, लेकिन राजा 805 संवेगरंगशाला, गाथा ७२६६-७३५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy