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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 429
राजा के उत्साहकारक वचनों से मुनि ने अन्यत्र विहार किया, परन्तु सुलभ, सुस्वादु, पुष्टिकर भोजन (आहार) आदि के प्रति राग उत्पन्न होने से वे पुनः राज्य - उपभोग की इच्छा से उसी नगरी में वापस आए। नगरी के बाहर उद्यान में वृक्ष की शाखा पर चारित्र के उपकरणों को टांगकर ( लटकाकर ) लज्जारहित होकर मुनि हरि वनस्पति से युक्त भूमि पर बैठ गए। इसे सुनकर राजा वहाँ आया और मुनि को संयम में स्थिर करने के लिए कहने लगा- “हे मुनि! आप धन्य हो, आप दीक्षा लेकर उसका निरतिचारपूर्वक पालन करते हो और मैं राज्य के सुख - भोग के बन्धन में पड़ा हुआ कुछ भी धर्म-कार्य नहीं कर सकता हूँ।” ऐसा कहते हुए राजा की दृष्टि वृक्ष पर पड़ी, तब भी वे मुनि कुछ नहीं बोले, तो वैराग्य को धारण करते हुए राजा ने फिर कहा- “हे मूढ़ ! पूर्व में मैं जब तुझे दीक्षा हेतु रोक रहा था तथा राज्य दे रहा था, तब तूने नहीं लिया और अब प्रतिज्ञा को तोड़कर तृण से भी हल्का बन गया है। अब तुझे इस राज्य को लेकर क्या सुख मिलेगा ?" ऐसा कहकर पुण्डरीक राजा ने अपना सारा राज्य उसे सौंप दिया और स्वयं लोच करके मुनि के संयम का वेश ग्रहण कर लिया। आचार्य के पास जाकर राजा ने विधिपूर्वक दीक्षा स्वीकार की, किन्तु छट्ठ तप (दो उपवास) के पारणे में शरीर के प्रतिकूल आहार लेने से उसके पेट में भयंकर पीड़ा हुई, जिससे मरकर वह सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ।
इधर कण्डरीक अन्तःपुर में गया। मन्त्री, सामन्त, आदि सारे लोगों ने 'यह दीक्षा छोड़नेवाला पापी है'- इस तरह कहकर उसका तिरस्कार किया । रस- लोलुपता के कारण वह भोजन - पानी में आसक्त बना। राजमहल का अतिपुष्टिकर भोजन शरीर के प्रतिकूल होने से वह विशुचिका रोग से ग्रसित हुआ और रौद्रध्यान के कारण मरकर वह सातवें नरक में उत्पन्न हुआ।
इस तरह विषयासक्त जीव विषयों को भोगे बिना भी दुर्गति को प्राप्त करता है, इसलिए विषय-भोगों को छोड़कर आराधना में मन लगाना चाहिए। विषयरूपी ग्रह के अधीन पड़ा मूढात्मा पिता को मारने का प्रयत्न करता है, बन्धु को शत्रु मानता है और स्वेच्छाचारी हो जाता है। विषय अनर्थ का पथ है। इस तरह विषय-भोग- सेवन के ज्वर से आक्रान्त जीव को श्रीखण्ड का पान करने के समान कहा गया है। विषयों का सेवन जीव के लिए विषरूप में ही परिणत होने वाला होता है। यदि विषयों में गुण होता, तो तीर्थंकर, चक्रवर्ती और बलदेव इस तरह विषयसुख को छोड़कर धर्मरूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं करते; इसलिए वे साधु धन्य हैं, जिन्होंने संसार के विषयसुखों को सर्पविष के समान अत्यन्त घातक जानकर त्याग दिया है।
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