SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 426/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मदिरा का पान अनेक पापों का कारण और दोषों का समूह है। इसी से यादव-कुल का भी नाश हुआ। ऐसे अतिदारुण दोष को सुनकर मद्यजय-प्रमाद को दूर करना चाहिए और मद्य का आजीवन त्याग कर देना चाहिए। जिसने भी मदिरा का त्याग किया है, उसकी धर्म-साधना हमेशा अखण्ड रही है और उसी ने अतुल फल प्राप्त किया है। लौकिक ऋषि की प्रस्तुत कथा संवेगरंगशाला में जिस रूप में उपलब्ध होती है, उस रूप में किन्हीं अन्य जैन-ग्रन्थों में उल्लेखित हो- यह ज्ञात नहीं होता है; किन्तु सम्भावना यह हो सकती है कि यह कथा किसी जैनेतर स्रोत से ग्रहण की गई हो और आचार्य ने उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा हो। अभयकुमार की कथा जैसे मद्यपान करना पाप है, वैसे ही मांस का भक्षण करना भी बहुत पापकारी है। सतत जीवोत्पत्ति होने से, शिष्ट पुरुषों से निन्दनीय होने से और सम्पातिक (उड़कर गिरते) जीवों का विनाश होने से इसका सेवन दोषरूप है। धर्म का सार ही दया है, इसलिए बुद्धिमान मनुष्यों को मांसभक्षण का आजीवन त्याग कर देना चाहिए। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में अभयकुमार की निम्न कथा वर्णित है :_803 राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसका अभयकुमार नामक अत्यन्त मेधावी पुत्र था, जो राज्य का प्रमुख मन्त्री भी था। एक दिन राजा अपने पुत्र अभयकुमार तथा अन्य मन्त्रियों के साथ राजसभा में बैठा था। उस समय एक प्रधान ने राजा से कहा- “हे देव! आपके राज्य में अनाजादि के भाव तेज हो गए हैं और वह सभी के लिए दुर्लभ भी होता जा रहा है, केवल एक मांस ही सस्ता और सर्वत्र सुलभ है।" उसके वचन सुनकर अभयकुमार को छोड़कर राजा, मन्त्री एवं सामन्त, आदि सभी ने उस बात को स्वीकार किया। अभयकुमार ने राजा से कहा- “हे तात! इस तरह आप सभी भ्रान्त मान्यता के वश क्यों होते हो? इस जगत् में निश्चय से मांस ही सबसे मंहगा एवं दुर्लभ है। उसकी अपेक्षा बहुमूल्य धातुएँ और वस्त्र, आदि सस्ते तथा सुलभ हैं।" इस पर सभी ने एकसाथ कहा- “आप मांस को अति मंहगा किस प्रमाण से कहते हो? आप प्रत्यक्ष ही देखो। दूसरी सभी वस्तुएँ बहुत धन देने पर ही प्राप्त होती हैं, संवेगरंगशाला, गाथा ७१५०-७१७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy