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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 425
अतः जिसने इसे छोड़ दिया है, उसे अब उन विषयों को पुनः ग्रहण करना योग्य नहीं है। शरद-ऋतु के बादल के समान नाश होनेवाले विषयों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है।" ऐसा सुनकर उस सेठ को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने भी सोचा कि विषय-वासना मुझे छोड़े, उससे पहले मैं ही उन्हें छोड़ दूँ। ऐसी भावना से सेठ भी तुरन्त दीक्षित हुआ।
विशिष्ट वैभव होने पर भी उस ऐश्वर्य का इस तरह नाश होते देखकर कौन बुद्धिशाली उसका मद करेगा।
इस प्रकार संवेगरंगशाला में ऐश्वर्यमद के सम्बन्ध में उत्तर मथुरा एवं दक्षिण मथुरा नगरी के दो व्यापारियों की यह कथा दी गई है। प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु अन्य जैन-ग्रन्थों में इस कथा के संकेत हमें प्राप्त नहीं हुए हैं।
लौकिक ऋषि की कथा जीव जिसके द्वारा धर्म में प्रमादी बनता है, उसे प्रमाद कहते हैं। मद्य, प्रमाद का मुख्य हेतु है और चित्त को दूषित करनेवाला है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में लौकिक ऋषि की निम्न कथा उपलब्ध होती है :-802
एकदा एक नगर के बाहर एक ऋषि उग्र तपस्या कर रहा था। उसके तप से भयभीत होकर इन्द्र ने उसे क्षोभित करने के लिए देवियों को भेजा। इन देवियों ने आकर विनय से उस ऋषि को प्रसन्न किया, जिससे ऋषि उनको वरदान देने को तैयार हो गया। तब वे देवियां कहने लगी- “हे ऋषि! आप मद्यपान करो, हिंसा करो, हमारा सेवन करो तथा देव की मूर्ति का खण्डन करो। यदि इन चारों का सेवन न करते हो, तो हे भगवन्त! आप इनमें से कोई भी एक का सेवन करों।" ऐसा सुनकर ऋषि ने सोचा- “शेष सब पापकर्म के हेतु हैं, अतः मद्यपान ही सुखकारक है। स्वमति से ऐसा निर्णयकर वह मद्य (मदिरा) पीने लगा। मदिरा से मदोन्मत्त होकर वह मांस का परिभोग करने लगा। उस मांस को पकाने के लिए काष्ठ की देवमूर्ति के टुकड़े करके जलाने लगा और लज्जा को छोड़कर, अर्थात् मर्यादा का त्यागकर उसने उन देवियों के साथ सम्भोग भी किया। इससे वह तप की शक्ति को खण्डित करनेवाला बना और मरकर दुर्गति में गया।
802 संवेगरंगशाला, गाथा ७०६८-७०७५.
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