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424 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री प्रारम्भ करने लगा, तब एक-एक करके क्रम से सभी थालियाँ, कटोरियाँ, आदि भी उड़ने लगी। अन्त में जब मूल थाली भी उड़ने लगी, तब उसने विस्मित होकर उस थाल को पकड़ना चाहा, लेकिन उसने थाली का जितना भाग पकड़ा, उतना भाग ही उसके हाथ में रह गया और शेष भाग भी उड़ गया। तत्पश्चात् वह अपने भण्डार को देखने गया, तो वहाँ भण्डार भी खाली मिला। इस तरह उसका सम्पूर्ण धन, वैभव, जमीन, जायदाद, आदि सभी नष्ट हो गया। दास-दासी आदि भी उसे छोड़कर चले गए, स्वजन पराए हो गए। कोई भी उसकी सहायता करने को तैयार नहीं था।
इस तरह लक्ष्मी को स्वप्नवत् तथा अनित्य मानकर शोकातुर हो वह विचार करने लगा कि ऐसे मन्दभागी जीवन को धिक्कार है, जिसका एक ही दिन में सब कुछ बदल गया। मैं करोड़पति से कंगाल बन गया। सत्पुरुष तो सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं, किन्तु मैंने तो प्राप्त हुई सम्पत्ति को भी खो दिया है। पूर्वजन्म में अवश्य ही मैंने कुछ पुण्य करने में कमी की है। ऐसा सोचकर पुण्य का उपार्जन करने के लिए वह धर्मघोषसूरि के पास दीक्षित हो गया। वहाँ उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, लेकिन भविष्य में पुनः उस थाल को देखने की इच्छा से वह उस थाल के टुकड़े को भी अपने साथ ही रखता रहा।
एक दिन वह मुनि विहार करते हुए उत्तर मथुरा नगरी में पहुंचा। वहाँ वह धनसार सेठ के घर भिक्षार्थ गया। उस समय सेठ उसी थाली में भोजन कर रहा था और उसकी पुत्री अपने पिता को पंखा झल रही थी। मुनि का ध्यान सेठ की थाली पर गया और वह विस्मित होकर उसे देखने लगा। सेठ ने मुनि से पूछा- “हे भगवन्त्! आप मेरी पुत्री को क्यों देख रहे हो?" मुनि ने कहा- “हे भद्र! मुझे तुम्हारी पुत्री से कोई प्रयोजन नहीं है, किन्तु यह बताओ कि तुम्हें यह थाली कहाँ से मिली है?" सेठ ने कहा- "भगवन्त! मुझे स्नान करते समय स्नान की सामग्री और भोजन करते समय भोजन के साधन प्राप्त हुए। साथ ही विपुल धन से भरा भण्डार भी मिला।" मुनि ने कहा- “यह सब तो मेरा धन है।" सेठ के द्वारा पूछने पर उस मुनि ने अपने पास रखे उस थाली के टुकड़े को सेठ की थाली के टूटे भाग से जोड़कर दिखा दिया। फिर मुनि ने अपने गाँव तथा पिता का नाम बताया एवं वैभव के नाश होने की सर्व बात कही। इससे सेठ ने 'यह तो अपना जंवाई है'- ऐसा जानकर रोते हुए कहा- "आपका सम्पूर्ण धन यहाँ सुरक्षित है तथा मेरी पुत्री भी आपके अधीन है। ये नौकर-चाकर सभी आपकी आज्ञानुसार वर्तन करनेवाले हैं, अतः आप दीक्षा को छोड़कर अपने ही घर के समान स्वेच्छापूर्वक यहाँ निवास करें।" इस पर मुनि ने कहा- “प्रथम तो पुरुष को ही काम-भोग छोड़ना चाहिए, अन्यथा विषय-भोग स्वयं पुरुष को छोड़ देते हैं,
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