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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 423 कर्मसिद्धान्त का नियम है कि लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से पदार्थों का लाभ होता है एवं लाभान्तरायकर्म के उदय से पदार्थों का अलाभ होता है। जब मनुष्य को पदार्थों का अतिलाभ होता है, तब उसका मद (अभिमान) भी बढ़ता है, जो उसके पतन का कारण होता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में ढंढणमुनि की जो कथा दी गई है, वह हमें शान्तिसूरिविरचित उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. ११६) में प्राप्त होती है। दो व्यापारियों की कथा मेरे पास विपुल धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, आदि हैं तथा स्त्री-पुत्रादि परिवार मेरे अनुरागी हैं। मेरे पास ऐश्वर्य का विस्तार है, अतः मैं ही साक्षात कुबेर हूँ- ऐश्वर्य का ऐसा मद नहीं करना चाहिए, क्योंकि संसार में सभी पदार्थ नाशवान् हैं। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में दो व्यापारियों की निम्न कथा उपलब्ध है :- 8021 उत्तर मथुरा नगरी में विषय-भोगों में निरत धनसार नामक एक बड़ा धनिक रहता था। एक समय वह कार्यवश दक्षिण मथुरा में गया। वहाँ उसके समान ही वैभव से शोभित धनमित्र नामक व्यापारी के साथ उसकी घनिष्ठ मित्रता हुई। एक दिन दोनों आपस में वार्त्तालाप करने लगे कि अपनी मित्रता किस तरह अखण्ड बनी रहे। ‘यदि हमारे यहाँ पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हो, तो उन दोनों का सम्बन्ध कर दें’- इस तरह का विचार योग्य लगने से, विकल्प बिना ही, दोनों ने स्वीकार कर लिया। संयोगवश धनमित्र के यहाँ पुत्र का और धनसार के घर पुत्री का जन्म हुआ। पूर्व संकल्प के अनुसार दोनों मित्रों ने उन दोनों की सगाई कर दी। किसी समय धनमित्र सेठ का स्वर्गवास हो गया। सेठ के चले जाने के बाद उसके स्थान पर उसका पुत्र अधिकारी बना। एक दिन वह सोने, ताम्बे, आदि के अनेक कलशों में भरे सुगन्धित जल से स्नान कर रहा था कि इन्द्रधनुष के समान चंचल लक्ष्मी की तरह कलश, आदि सभी वस्तुएँ आकाश में उड़ गए। जब वह उठा तो विविध मणियों से प्रकाशित स्वर्ण का पाट भी उड़ गया। इससे वह बहुत दुःखी हुआ। भोजन के समय उसके अनुचरों ने उसके सामने विविध प्रकार का षड्रस भोजन सोने, चांदी की थालियों में परोसा । जब वह भोजन 801 संवेगरंगशाला, गाथा ६६४६-७०२०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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