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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 411 अपने कुल की प्रशंसा करने से तीव्र भावावेश में उसने नीचगोत्रकर्म का बन्ध किया। इस कर्मबन्धन के कारण वह छः भवों तक, अर्थात् भिक्षुक (ब्राह्मण) कुल में और अन्य कई भवों तक निम्न कुल में उत्पन्न हुआ। फिर वासुदेव चक्रवर्ती आदि की लक्ष्मी को भोगकर उसने अरिहन्त, आदि बीस - स्थानकों की आराधना की। अन्त में, अरिहन्त होने पर भी कुलमद से नीचगोत्र के बन्ध के कारण ब्राह्मण, अर्थात् भिक्षुक - कुल में देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में उत्पन्न हुआ। बयासी दिन बाद इन्द्र ने ‘यह अनुचित है' - ऐसा जानकर हरिणगमेषी देव द्वारा सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला महारानी के गर्भ में उसका परिवर्तन कराया। उचित समय पर उसका जन्म हुआ और देवों द्वारा मेरुपर्वत पर उसका जन्माभिषेक हुआ, बाद में उसने दीक्षा स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त किया । तीर्थंकर परमात्मा भी ऐसी अवस्था को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह जानकर सामान्य पुरुषों को कुलमद की इच्छा नहीं करना चाहिए। कुलमद के कारण उत्तमकुल में जन्म लेनेवाले व्यक्ति को हीन कुलवाले का मुख देखना पड़ता है, अर्थात् उसका दासत्व स्वीकार करना पड़ता है, अतः कुलमद करने की अपेक्षा मरना ही श्रेयस्कर है। प्रस्तुत कथा का सार यह है कि अभिमान चाहे धन का हो, अथवा कुल का, वह जीव को चतुर्गति में परिभ्रमण कराता ही है। जैन परम्परा में इस सम्बन्ध में मरीचि का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। उसकी कुल परम्परा इस प्रकार थी- मरीचि के दादा प्रथम तीर्थंकर थे, पिता प्रथम चक्रवर्ती थे और वह स्वयं भी भविष्य में प्रथम वासुदेव एवं अन्तिम भव में २४वां तीर्थंकर होनेवाला था। इस तरह उसकी कुल परम्परा उच्च थी, फिर भी अभिमान करने के कारण अन्तिम भव में याचक कुल में गर्भ में आना पड़ा। प्रस्तुत सन्दर्भ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने मरीचि का दृष्टान्त देते हुए, व्यक्ति को कुल का मद नहीं करना चाहिए ऐसा निर्देश किया है। प्रस्तुत कथा हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. २२१-२२८ ) तथा कल्पसूत्रवृत्ति (पृ. ४१ ) में भी उपलब्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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