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________________ 410 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री एकदा ग्रीष्मऋतु में सूर्य की किरणें तेज होने से, धरती तप्त हुई तथा गरम हवाएँ चलने लगी, जिससे पसीने के कारण मरीचि के शरीर से दुर्गन्ध आने लगी। तब मरीचि अपनी आचार-मर्यादा में परिवर्तन पर चिन्तन करने लगा- 'मैं त्रिदण्ड धारण करनेवाला बनूँगा तथा क्षुर से मुण्डन करूँगा, चोटी रखूगा, स्थूल हिंसा नहीं करनेवाला तथा अल्पपरिग्रह रखनेवाला बनूँगा। मोह से आच्छादित हुआ मैं छत्र, जूते और कषायवस्त्र को धारण करूँगा, क्योंकि कषाय से कलुषित मतिवाला मैं इनके योग्य ही हूँ। मैं परिमित सचित्त जल से स्नान करूँगा और उसका पान भी करूँगा।' इस तरह वह स्वछन्द बुद्धि से कल्पना करके विचित्र युक्तियों से युक्त निर्ग्रन्थ साधुओं के विलक्षण वेशवाला होकर जिनेश्वर भगवान् के साथ विहार करता तथा भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर उन्हें ऋषभदेव भगवान् के पास भेजता था। एक दिन भरत ने वैभवशाली ऐश्वर्य से युक्त समवसरण को देखकर भगवान् ऋषभदेव से पूछा- “हे तात! आपके समान इस भरतक्षेत्र में और कितने तीर्थकर होंगे?" जगद्गुरु ने कहा- “अजितनाथ आदि २३ तीर्थकर और होंगे। इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती, वासुदेव और बलदेव भी होंगे।” भरत ने पुनः पूछा"हे भगवन्त! क्या आपकी देव, मनुष्य, असुर की इतनी विशाल सभा में से कोई जीव भविष्य में तीर्थकर होनेवाला है?" भगवान् ने भरत से कहा- “जो सिर से ऊपर छत्र धारण करनेवाला, यानी त्रिदण्ड को धारण करनेवाला है तथा इस समवसरण के बाहर स्थित है, वह मरीचि का जीव अन्तिम तीर्थकर होगा। यही पोतनपुर में प्रथम वासुदेव होगा और महाविदेह क्षेत्र में मूकानगरी में चक्रवर्ती भी होगा।" यह सुनकर भरत हर्ष से प्रभु की आज्ञा लेकर मरीचि को वन्दन करने लगा। परम-भक्ति से युक्त भरत ने मरीचि की तीन प्रदक्षिणा की तथा सम्यक् प्रकार से वन्दन करके मधुर वचनों से कहा- "हे महाशय! आप धन्य हो! इस संसार में प्राप्त करने योग्य सब कुछ आपने प्राप्त किया।" मैं आपके इस परिव्राजक वेश को वन्दन नहीं करता हूँ, बल्कि आप भविष्य में अन्तिम तीर्थकर होंगे, इसलिए मैं आपको नमस्कार कर रहा हूँ।" इस प्रकार स्तुति करके भरत चला गया। भरत की इस बात को सुनकर मरीचि को अपार हर्ष हुआ और वह अपने विवेक को भूलकर त्रिदण्ड को तीन बार घुमाकर और अपनी भुजाओं को उठाकर लोगों से कहने लगा- “अहो देखो! मैं वासुदेवों में प्रथम वासुदेव हूँ, चक्रवर्ती भी हूँ और तीर्थकरों में भी अन्तिम तीर्थकर हूँ। अहो! मैंने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। मैं वासुदेवों में प्रथम हूँ, मेरे पिता भी प्रथम चक्रवर्ती हैं और मेरे दादा भी प्रथम तीर्थकर हैं। अहो! मेरा कुल कितना उत्तम है। इस तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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