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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 409 आदेश दिया गया। राजपुरुषों ने उसे गधे पर बिठाकर तिरस्कारपूर्वक पूरे नगर में घुमाया और उसे सूली के पास ले गए, किन्तु उसका प्रसन्न रूप देखकर उन्हें उस पर करुणा उत्पन्न हुई और उन्होंने उसकी आँखों में अंजन डालकर उसे देश से बाहर भेज दिया। इस तरह भटकता हुआ अन्त में मरकर वह अनेक भव तक निम्न योनियों में उत्पन्न हुआ। फिर एक भव में मनुष्य बना और केवली भगवन्त से पूर्वभव को जानकर उसने दीक्षा स्वीकार की। अन्त में मरकर महेन्द्रकल्प में वह देवरूप में उत्पन्न हुआ। इस तरह संसार में जातिमद के कारण जीव अनेक प्रकार की जातियों को प्राप्त करता है, किन्तु ये जातियाँ भी शाश्वत नहीं होती हैं। इस जीवन में राजा अथवा ब्राह्मण होकर भी जन्मान्तर में वह कर्मवश चाण्डाल भी होता है, तो उसे जातिमद से क्या लाभ? लोक में गुणवानों की ही पूजा होती है। जाति से श्रेष्ठ, किन्तु गुणों से हीन व्यक्ति की पूजा नहीं होती है। प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का प्रयास करने पर भी हमें इस कथा का मूल स्रोत ज्ञात नहीं हुआ। मरीचि की कथा कीचड़ पर उत्पन्न हुए कमल को भी जैसे मनुष्य मस्तक पर धारण करता है, वैसे ही हीन कुल में जन्म लिया हुआ गुणवान् भी लोक में पूज्य बनता है। यदि उत्तम कुलवाले मनुष्य भी शील, बल, रस, आदि से रहित हों, तो कुलमद करने से क्या लाभ? इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में मरीचिपुत्र की निम्न कथा वर्णित है:-795 नाभि-पुत्र ऋषभदेव के राज्याभिषेक के समय युगलिकों की आवश्यकता को देखकर इन्द्र ने विनीता नगरी बसाई। ऋषभदेव के दीक्षा लेने के पश्चात् भरत राजा विनीता नगरी में शासन करने लगे। उसकी वामा नाम की एक प्रिय रानी थी। उसका मरीचि नामक एक पुत्र था। बाल्यावस्था के बाद एक दिन वह भगवान् ऋषभदेव का प्रवचन श्रवण कर प्रतिबोधित हुआ और जीवन को कमलिनी-पत्र के अग्रभाग पर लगे हुए जलबिन्दु के समान अस्थिर और संसार की वस्तुओं को विनश्वर जानकर उसने भगवान् के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् स्थविरों के पास सूत्रों का अध्ययन करता हुआ वह भगवान् के साथ विचरने लगा। 795 संवेगरंगशाला, गाथा ६६२४-६६६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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