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412 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
कांकदी के दो भाइयों की कथा
पुद्गल का स्वभाव सड़ना, गलना और विध्वंस होना है। चाहे सुगन्धित द्रव्य, बहुमूल्य वस्त्र, आभूषणादि के संयोग से इस शरीर की शोभा दिखाई देती हो, लेकिन भीतर से तो यह दुर्गन्ध से भरा हुआ है। बाहर केवल सुन्दर चमड़ी से लिपटे हुए ऐसे अस्थिरूप का मद करने का कोई भी आधार नहीं है, क्योंकि कर्मवश विरूपवाला भी रूपवान् और रूपवान् भी कुरूपवान् हो जाता है - इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में कांकदी के दो भाईयों की निम्न कथा वर्णित है - 796
कांकदी नगरी में यश नामक एक धनपति सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम कनकवती था। उसके दो पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र वसुदेव, जो कामदेव के सदृश रूपवान् था तथा दूसरा पुत्र स्कन्दक अति कुरूप था। कौतुहलवश लोग दूर-दूर से इन दोनों को देखने के लिए आते थे। एकदा अवधिज्ञानी विमलयश नाम के आचार्य का वहाँ आना हुआ। उनका आगमन जानकर राजा अपने परिवार, नगरजन तथा उस धनपति के दोनों पुत्रों के साथ उनको वन्दन करने के लिए गया। वे सब आचार्य के चरणों में वन्दन करके अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठे। आचार्य की दृष्टि अचानक उन दोनों भाइयों पर गई। आचार्य ने अपने ज्ञानचक्षु से उनके पूर्वभव को देखा और विस्मित होकर कहने लगे- “अरे! यह कर्म का कैसा खेल है, जो सुरूप को कुरूप और कुरूप को सुरूप बना देता है । " जब पर्षदा के लोगों ने पूछा- “हे भगवन्त ! इस तथ्य का क्या रहस्य है, जरा हमको भी सुनाइये", तब आचार्य ने कहा- “सुनो! धनपति के ये दोनों पुत्र पूर्वभव में ताम्रलिप्ति नगरी में धनरक्षित और धर्मदेव नाम के दो मित्र थे । धनरक्षित रूपवान् तथा धर्मदेव विरूप था। दोनों मित्र परस्पर क्रीड़ा करते थे । धनरक्षित अपने रूपमद के कारण धर्मदेव की कुरूपता पर लोगों के समक्ष अनेक तरह से हँसी करता था। एक समय धनरक्षित ने धर्मदेव से कहा- “ अरे मित्र! पत्नी के बिना गृहवास सूना है। यदि तुझे विवाह न करना है, तो यूं ही क्यों दिन व्यतीत कर रहा है? इसकी अपेक्षा तो तू साधु बन जा । " सरल स्वभावी धर्मदेव ने उससे कहा - "हे मित्र ! तेरी यह बात तो सत्य है, परन्तु संसार में स्त्री की प्राप्ति में दो मुख्य हेतु हैं, एक तो मनुष्य के मन को हरण करनेवाला रूप होना चाहिए और दूसरे उसके पास विशाल वैभव होना चाहिए, किन्तु दुर्भाग्यवश ये दोनों ही मेरे पास नहीं है। अगर तू अपनी बुद्धि द्वारा कोई उपाय निकाल दे, तो कुछ बात बन सकती है।" उसकी बात सुनकर धर्मरक्षित ने कहा- "हे मित्र ! तू निश्चिन्त रह । मैं तेरी हर मनोकामना को पूर्ण कर दूंगा।" इस तरह धनरक्षित ने
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संवेगरंगशाला, गाथा ६६७४-६७२३.
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