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ब्राह्मणपुत्र सुलस की कथा
जातिमद अनर्थों का मूल कारण है, इसके कारण व्यक्ति नीच योनियों में उत्पन्न होकर दुःखों से पीड़ित होता है। व्यक्ति जातिमद तभी कर सकता है, जब उसका उत्तम जाति, कुल, रूप, गुण, आदि हमेशा स्थिर रहें, अन्यथा वायु से फूली हुई मशक के समान मिथ्यामद करने से क्या लाभ? जातिमद करने से नीचगोत्र का ही बन्ध होता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में ब्राह्मणपुत्र का दृष्टान्त दृष्टव्य है - 794
श्रावस्ती नगरी में नरेन्द्रसिंह नामक राजा रहता था । उसका अमरदत्त नामक एक राजपुरोहित था । उस पुरोहित को सुलस नामक एक पुत्र था। सुलस अपने श्रुतज्ञान, वैभव तथा राजा से प्राप्त सत्कार के आधार पर गर्व करता था, इसलिए वह निरकुंश हाथी की तरह राजमार्ग में स्वच्छन्दतापूर्वक घूमता रहता था। एक दिन एक माली ने उसे आम्र-मंजरी भेंट में दी, जिससे वसन्त ऋतु का आगमन हुआ जानकर वह नन्दन - उद्यान में गया। वहाँ के वनरक्षक द्वारा वन की प्रशंसा सुनकर दुगुने उत्साह से वह नन्दनवन में परिभ्रमण करने लगा। अचानक वहाँ वृक्षों के बीच एक मुनि को ध्यान में खड़े देखा। अपनी जाति का अभिमान करते हुए मुनि की हँसी करने के उद्देश्य से सुलस उनके पास आया और वन्दनकर कहने लगा- “हे भगवन्त ! मैं संसार से भयभीत हुआ आपके पास आया हूँ, अतः आप मुझे धर्म सुनाइए, जिससे मैं आपकी चरण- सेवा करने के लिए आपके पास दीक्षा स्वीकार करूँ ।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 407
सरल स्वभावी मुनि ने उसे जिनेश्वर प्रणीत वचन कहे । धर्म का मूल जीवदया है। इससे मोक्ष प्राप्त होता है। मुनि के इस प्रवचन को श्रवणकर सुलस हँसते हुए कहने लगा- “जीवदया धर्म का मूल है और उसका फल मोक्ष है, ऐसा कहकर किसने तुझे ठगा है ? क्यों इस संसार के विषय - सुखों को छोड़कर कष्ट को सहन कर रहा है? इस पाखण्ड - पंथ को छोड़कर मेरे साथ चल और राजमहल में स्थित सुन्दर स्त्रियों के साथ स्वेच्छानुसार भोग-विलास कर ।" ऐसा कहकर वह उस मुनि को हाथ
पकड़कर घर ले जाने लगा । सुलस द्वारा मुनि का हास्य करने से वनदेवी क्रोधित हुई और उसने सुलस को मूर्च्छित कर पृथ्वी पर गिरा दिया, फिर भी राग-द्वेषरहित मुनि ध्यान में स्थिर खड़े रहे । राजसेवकों ने सुलस को किसी तरह
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संवेगरंगशाला, गाथा ६५५५-६६१४.
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