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406 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री को विफल बनाकर अपनी मृत्यु के बाद लांतक-कल्प में किल्विषिक-देव बना, साथ ही उसके चारित्र और ज्ञान के सभी गुण एकसाथ नष्ट हो गए।
कहा गया है कि मिथ्यात्व जितना अहित करता है, उतना अहित अग्नि, सर्प या जहर भी नहीं करते हैं। जैसे- स्वच्छ जल से धोए हुए कडुए पात्र में रखा हुआ दूध दूषित हो जाता है, वैसे ही मिथ्यात्व से कलुषित जीव में प्रकट हुआ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप भी विनाश को प्राप्त होता है। यह मिथ्यादर्शनशल्य वस्तु का उल्टा/विपरीत बोध कराता है तथा सद्धर्म को दूषित करता है और संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण कराता है। इसलिए मोक्षाभिलाषी जीव को इसका त्याग करना चाहिए। उसे विवकेरूपी अमृत का पान कर, मिथ्यात्वरूपी जहर का वमन करके सम्यक्त्व की आराधना करना चाहिए।
संवेगरंगशाला में मिथ्यादर्शनशल्य को समस्त पापों का मूल बताया गया है। मिथ्यात्वभाव के शल्य का आत्मा की गहराइयों में प्रविष्ट होना ही मिथ्यात्वशल्य है। स्थानांग में मिथ्यात्व के दस रूपों का उल्लेख किया गया है- धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, मार्ग को कुमार्ग, कुमार्ग को मार्ग, जीव को अजीव, अजीव को जीव, साधु को असाधु, असाधु को साधु, मुक्त को अमुक्त, अमुक्त को मुक्त समझना। संवेगरंगशाला में यह भी कहा गया है कि पुण्योदय से सम्यग्दर्शन प्राप्त करने पर भी मिथ्याभिमानरूपी मदिरा से मदोन्मत्त बना हुआ जीव सम्यक्त्व को नष्ट कर देता है। इस विषय में संवेगरंगशाला में उपर्युक्त जमाली की कथा उल्लेखित है। प्रस्तुत कथानक हमें आवश्यकनियुक्ति (गा. ७८०), व्याख्याप्रज्ञप्ति (३८६-३८७), भगवतीवृत्ति (पृ. १६), समवायांगवृत्ति (पृ. १३२), स्थानांग (पृ. ५८७), निशीथभाष्य (पृ. ५५६७), सूत्रकृतांगचूर्णि (पृ. २७३), विशेषावश्यकभाष्य (पृ. २८०२-०७) आदि प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।
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